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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 225
श्रमण-जीवन की महत्ता
श्री सम्पतराज चौधरी
एक साधक गृहस्थ से बढ़कर होता है श्रमण का जीवन । वह आत्म-कल्याण के साथ परकल्याण में भी तत्पर होता है । आत्म-विकास के लिए तप अथवा श्रम करने के कारण उसे श्रमण कहा जाता है। श्री चौधरी साहब ने अपने आलेख में श्रमण के तपस्वी अर्थ का विशेष महत्त्व स्थापित किया है तथा सच्चे श्रमण के साधना-शील जीवन का महत्त्व स्पष्ट किया है। -सम्पादक
साधना का मार्ग एवंफल
आचार्य कुन्दकुन्द के समकालीन आचार्य वट्टकेर ने कहा है- 'मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणं समक्खादं' (मूलाचार, 202) अर्थात् महावीर भगवान् ने अपने समस्त प्रवचनों में दो बातें कही हैं- मार्ग एवं मार्ग का फल। मार्ग का अर्थ है- साधना पथ और मार्गफल का अर्थ है- साध्य।मानव को साधना पथ पर चलकर जिस ध्येय को प्राप्त करना होता है वह है- आत्मस्वरूप की प्राप्ति। यही उसका अन्तिम ध्येय है, क्योंकि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के पश्चात् पाने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहता है।
साधना मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। साधना दो प्रकार की होती है। एक लौकिक साधना होती है और दूसरी लोकोत्तर साधना। जिस मार्ग के बारे में आचार्य ने कहा है, वह लोकोत्तर साधना है। इसे अध्यात्मसाधना भी कहते हैं। अध्यात्म-साधना भी दो प्रकार की होती है- एक देशविरति साधना और दूसरी सर्वविरति साधना। प्रथम प्रकार की साधना में व्यक्ति मर्यादाशील जीवन यापन करता हुआ भी पूर्ण हिंसादि पापों का त्याग नहीं कर सकता, फिर भी वह अर्थ और काम का सेवन करते हुए भी धर्म को ही जीवन में प्रमुख स्थान देता है। जो अर्थ और काम धर्म से च्युत करते हैं, वहाँ वह अपनी कामनाओं का संवरण कर लेता है। साधना के दूसरे मार्ग सर्वविरति में व्यक्ति गृहत्यागी बनकर मन, वचन और काय से सम्पूर्ण हिंसा, स्तेय, अदत्तग्रहण, कुशील और परिग्रह आदि पापों का त्याग कर देता है, उन पापों को अन्य से नहीं करवाता है एवं ऐसे पाप करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करता है। ऐसे गृहत्यागी साधक को जैनागमों में श्रमण' कहा है। श्रमण की साधना पूर्ण साधना का मार्ग है, जबकि गृहस्थ की साधना देशविरति होती है जो सर्व-विरति साधना की ओर अग्रसर होने की भूमिका है।
आस्तिक दर्शनों ने चेतन तत्त्व अर्थात् आत्मा को शरीर एवं अन्य दृश्यमान जगत् के पदार्थों से भिन्न और स्वतन्त्र माना है। शरीर में रहता हुआ चेतन तत्त्व अनन्त शक्ति सम्पन्न होकर भी कर्मों के संयोग से अपने स्वरूप को विस्मृत कर चुका है, इसीलिये यह अनेक भवों में अपने कर्मानुसार अलग-अलग पर्यायों में भ्रमण
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