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________________ 10 जनवरी 2011 223 जिनवाणी प्रवृत्ति के संघर्ष से श्रान्ति होती है तो उससे त्राण पाने के लिये मनुष्य निवृत्ति की ओर झुकता है। किन्तु मनुष्य की मूलभूत आवश्यकतायें उसे फिर प्रवृत्ति में ले जाती हैं। यह स्थिति सामान्य व्यक्ति की है। इस स्थिति को लेकर जब दार्शनिक मत निर्मित होने लगे तो प्रवृत्ति-निवृत्ति के तारतम्य को लेकर अनेक सम्प्रदाय बने और अभी भी बनते रहते हैं । वेदों का धर्म प्रवृत्ति-प्रधान था तो उसी परम्परा में निवृत्ति - प्रधान उपनिषद् भी आये। इन दोनों की आवश्यकता को समझते हुए ज्ञान - कर्म के सन्तुलन पर भी बल दिया गया, किन्तु आचार्य शङ्कर ने ज्ञान- कर्म के विरोध को अपरिहार्य मानकर ज्ञान की उपादेयता और कर्म की हेयता बतायी तो शाङ्कर वेदान्त निवृत्ति- प्रधान हो गया और इसलिये शङ्कराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध भी कहा गया। इसे एक प्रकार से एक ब्राह्मण परम्परा के आचार्य पर श्रमण होने का आरोप समझा जा सकता है। इसके विपरीत ब्राह्मण परम्परा में ही पूर्वमीमांसा कर्म-प्रधान है। यह हम इसलिये कह रहे हैं कि ब्राह्मण श्रमण के बीच कोई व्यावर्तक विभाजक रेखा खींचने की कोशिश सत्य के बहुत निकट नहीं है । प्रवृत्ति धर्म की अति के उदाहरण इस्लाम में मिलते हैं जहाँ बकरा ईद पर पशुओं की बलि देना एक धार्मिक कृत्य समझा जाता है। हिन्दुओं में भी काली मां के सम्मुख पशुबलि दी जाती रही है, और अभी भी कहीं-कहीं दी जाती है। तान्त्रिकों के पञ्च मकार के सेवन की बात वाममार्ग के नाम से प्रसिद्ध है। अभिप्राय यह है कि निवृत्ति मार्गी जिसका निषेध करते रहे उसका विधान करने वाले सम्प्रदाय भी हैं। यह प्रवृत्ति की अति के उदाहरण हैं। दूसरी ओर निवृत्ति की अति के उदाहरण के रूप में जैन दिगम्बर साधु की चर्या देखी जा सकती है जो वस्त्र का एक टुकड़ा भी शरीर पर रखना उचित नहीं समझती। श्वेताम्बर सम्प्रदाय का निवृत्ति पर इतना अधिक बल नहीं है, किन्तु श्वेताम्बरों में भी स्थानकवासियों की अपेक्षा तेरापन्थियों का झुकाव निवृत्ति की ओर अधिक है। जैन धर्म के इन सम्प्रदायों के बीच परस्पर शास्त्रार्थ भी होता रहा है। हमारा अभिप्राय उस शास्त्रार्थ में जाने का बिल्कुल नहीं है, अपितु केवल यह दिखाने का है कि किस प्रकार मानव-मन प्रवृत्ति - निवृत्ति के बलाबल के तारतम्य के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से सोचता रहा है । गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया कि वह युद्ध जैसी प्रखर प्रवृत्ति करते हुए भी स्थितप्रज्ञ रूप में वह समस्त लाभ प्राप्त कर सकता है जो किसी निवृत्तिमार्गी संन्यासी को मिलते हैं। आजकल अनेक संन्यासी लोकसभा का चुनाव लड़ने जैसी प्रवृत्ति करते दिखायी देते हैं । बौद्धधर्म में मध्यम प्रतिपदा के नाम से निवृत्ति - प्रवृत्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाने की बात कही जाती है। विषय का और भी अधिक विस्तार किया जा सकता है। किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि प्रवृत्ति - निवृत्ति के बीच एक अति से लेकर दूसरी अति के बीच अनेकानेक मार्ग इस देश में उत्पन्न हुए। सबका अपना-अपना तर्क है । रुचि-भेद के कारण इन मार्गों की विविधता बनी रहने वाली है। इनमें निवृत्ति की ओर झुकी परम्परा श्रमण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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