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10 जनवरी 2011 जिनवाणी 222
श्रमण-परम्परा का वैशिष्ट्य
प्रो. दयानन्द भार्गव
श्रमण-परम्परा निवृत्ति प्रधान है, किन्तु प्रवृत्ति की निषेधक नहीं है। इसमें अशुभ से निवृत्ति एवं शुभ में अथवा संयम में प्रवृत्ति की जाती है। यह तथ्य गुप्ति एवं समिति की साधना में अन्तर्निहित है। श्रमण-परम्परा की निवृत्तिपरक दृष्टि के महत्त्व का प्रतिपादन प्रो. भार्गव साहब ने पैनी आध्यात्मिक दृष्टि से कर उसका वैदिक परम्परा से भेद भी स्पष्ट कर दिया है। निवृत्ति को आन्तरिक जागरूकता के रूप में निरूपित कर प्रो. भार्गव साहब ने श्रमण-परम्परा का महत्त्व स्थापित किया है। -सम्पादक
भारत में श्रमण-बाह्मण संस्कृति आज गंगा-यमुना की भाँति इस प्रकार भारतीय संस्कृति के सङ्गम में मिल चुकी हैं कि दोनों का पृथक्-पृथक् वैशिष्ट्य अङ्कित करना लगभग दुस्सम्भव सा ही हो गया है। मेरी समझ में इन दोनों का दूध-पानी की भाँति मिल जाना ठीक ही हुआ, अन्यथा भारतीय संस्कृति इतनी बहुरंगी और समृद्ध न हो पाती। श्रमण-ब्राह्मण तो ऐतिहासिक नामकरण है, दार्शनिक दृष्टि से तो निवृत्ति-प्रवृत्ति कहना ठीक होगा। बिना निवृत्ति के प्रवृत्ति और बिना प्रवृत्ति के निवृत्ति का दर्शन दुर्लभ ही है। जैन परम्परा में भी अयोग केवली तो चरम स्थिति ही है; उसके पहले योग बना ही रहता है। योग है तो प्रवृत्ति है ही।
___अनेकान्त का सिद्धान्त दो विरोधी ध्रुवों के बीच समन्वय पर बल देता है। महर्षि अरविन्द के अनुसार सभी समस्यायें मूलतः दो विरोधी अवधारणाओं के बीच समन्वय स्थापित करने की समस्यायें हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच भी समन्वय स्थापित करने की समस्या को हल करने का प्रयत्न भारतीय दर्शन के इतिहास में प्रारम्भ से ही होता रहा है। जैन परम्परा में जिन-कल्पी व्यवस्था में निवृत्ति को बहुत अधिक महत्त्व दे दिया गया। वर्तमान युग में उस व्यवस्था को अव्यावहारिक मानकर स्थविर कल्प को ही व्यावहारिक माना गया। उधर दिगम्बर परम्परा में ऐसा कोई भेद नहीं और एक ही प्रकार की मुनि-चर्या का विधान है जो श्वेताम्बर परम्परा की
अपेक्षा निवृत्ति पर अधिक बल देती प्रतीत होती है। वैदिक परम्परा में संन्यासी अनेक प्रकार के बताये गये हैंहंस, परमहंस, अवधूत इत्यादि। डॉक्टर हरदत्त शर्मा ने अपने Brahamanical Contribution to asceticism नामक शोधग्रन्थ में इन अनेक प्रकार के संन्यासियों की चर्या का उल्लेख किया है। वहाँ भी हमें प्रवृत्ति-निवृत्ति के बलाबल का तारतम्य दृष्टिगोचर होता है।
अभिप्राय यह है कि मनुष्य का मन प्रवृत्ति-निवृत्ति के द्वन्द्व में सदा से ही झूलता रहा है। कारण यह है कि मनुष्य की अनेक आवश्यकतायें ऐसी हैं- आहार, निद्रा, सुरक्षा आदि -जिनकी पूर्ति प्रवृत्ति से ही होती है। उधर
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