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जिनवाणी
10 जनवरी 2011 में, तो कभी भविष्य में रमण करता है । इन्द्रियों के विषय के अनुरूप प्रेरित हो इंद्रियों को तृप्त करने में लगा रहता है। इसी में सुख की तलाश करता है, इसे ही सुख मानकर इसका दास बन जाता है। इसी उधेड़-बुन में सारा जीवन बीत जाता है और संजोये सपने पूरे नहीं होने पर या वस्तु से बिछोह होने पर सुख के स्थान पर दुःखी होता है। शाश्वत सुख और आनंद के लिए चित्तवृत्ति को भौतिक जगत की चकाचौंध से मोड़ कर स्व में स्थित होने व स्वबोध प्राप्त करने के लिए अध्यात्म की ओर मुड़ना होगा। भौतिक वस्तुओं से विमुखता अध्यात्म की प्रथम आवश्यकता है। बिना विमुख हुए अध्यात्म की सीढ़ी चढ़ना असंभव है। गृहस्थ को छोड़ श्रमण जीवन में प्रवेश द्रव्य रूप से भौतिक वस्तुओं के त्याग का प्रथम कदम है। वस्तुओं व भौतिकता का त्याग अन्तरंग से हो, इसके लिए श्रमण-जीवन में भी कठिन परिश्रम व साधना की आवश्यकता है। मात्र गृहस्थ जीवन छोड़ने से मुक्ति मार्ग तय नहीं हो जाता, इसलिए श्रमण की आचार संहिता बहुत शोध व अनुभव के आधार पर बनाई गई है। बहुत चंचल है, इसकी वृत्ति अनियंत्रित व क्लिष्ट है । चित्त वृत्ति निरोध को ही महर्षि पतंजलि ने 'योग' कहा है । चित्तवृत्ति पर नियंत्रण के बिना संयम शुरू नहीं होता। भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
एगे जिया, जिया पंच पञ्च जीए, जिया दस, दहा उ जिवित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं
अर्थः- एक (मन) को जीतने से ( पाँच इन्द्रियों) को जीता जा सकता है और पाँच को जीतने से दस (पाँच इन्द्रियों व पाँच कर्मेन्द्रियों) को जीता जा सकता है। दस को जीतने पर सर्व शत्रुओं को जीता जा सकता है। स्पष्ट है कि मन को जीतने पर सब शत्रुओं (आत्म-बोध में बाधक शत्रुओं) को जीता जा सकता है। कहावत भी है मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। मन को साधना ही सबसे बड़ी साधना है। मन को जीतने का विषम युद्ध ही महाभारत है। मन की अनंत इच्छाओं (कौरवों की बलशाली फौज) व पाँच इन्द्रियों (पांडवों) के बीच युद्ध है। मन की इच्छाओं पर विजय ही सच्ची है। उत्तराध्ययन सूत्र को पुनः उद्धृत करते हुए निम्न सूत्र
उल्लेखनीय है
संजोगा विपमुक्कस्स एगतमनुपस्सओ
अर्थः- संयोग (बाहरी वस्तुओं के मिलन व विछोह) को छोड़ कर मात्र मन को देखो। संयोग-वियोग ही संसार है और इसमें चित्त हमेशा लगा रहता है, मन उद्वेलित रहता है और कभी शांत नहीं होता। मन में उठ रहे विचारों को अनासक्त भाव से देखने से मन की अनन्त संकल्पनाओं से मुक्ति पाकर मन को निर्विकल्प बनाया जा सकता है। निर्विकल्प और निर्विचार मन ही शांत और समाधिपूर्ण मन है जो पूर्णतः सजग और अप्रमत्त है, उस मन में कोई लोकैषणा नहीं, न ही कामना । वह पूर्णतः अनासक्त और विरक्त है ।
यदि हम ध्यान से देखें तो पता लगेगा कि हम अपने शरीर को सजाने, संवारने और चुस्त बनाने तथा
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