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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 209 आध्यात्मिक-साधना एवं श्रमणाचार श्री रणजीत सिंह कूमट आध्यात्मिक-साधना में साधक पर से स्व की ओर प्रयाण करता है। आत्मबोध एवं सजगता के साथ वह तप, महाव्रत, समिति एवं गुप्ति की साधना करता हुआ असीम आत्मिक आनन्द को प्राप्त करता है । लेखक ने महाव्रत (यम), नियम, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार। नामक योगाङ्गों को विषयासक्ति से विमुख होने में बाह्य साधना माना है, वहाँ स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि को अन्तरंग उपाय स्वीकार किया है। वे समिति का अर्थ स्मृति या, जागरूकता करते हैं -सम्पादक श्रमण की यात्रा भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर, पर से स्व की ओर तथा अविद्या से विद्या की ओर है। गृहस्थ (श्रावक) का अधिकांश समय जीविकोपार्जन व भौतिक साधनों के अर्जन, संचय व उपभोग तथा मौज-मस्ती में लगता है और स्व को जानने का अवसर ही नहीं मिलता। भौतिक साधनों का मोह (अविद्या) त्याग कर श्रमण-जीवन में दीक्षा अध्यात्म (विद्या) में लीन हो जीवन मुक्त होने के लिये प्रयाण है। ___ अध्यात्म क्या है, वह कैसे जीवन-मुक्त बनाता है तथा जैन श्रमणों के लिये निर्धारित श्रमणाचार किस प्रकार इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक है, इस पर विवेचन करने का प्रयास किया जायेगा। अध्यात्म का अर्थ अध्यात्म का अर्थ कई प्रकार से किया जाता है, आत्मा में लीन होना, आत्मा से जुड़ना, अंतर्मुखी होना, स्व में स्थित होना, अंतर में झांकना आदि अध्यात्म के पर्याय माने जाते हैं, इसके विपरीत भौतिक साधनों या भौतिक जगत की चकाचौंध में लिप्त होना, बहिर्मुखी होना भौतिकता का पर्याय माना जाता है। जिन महापुरुषों ने वास्तविकता की पहचान कर ली है वे प्रतीति कर चुके हैं कि असीम आनंद की सत्ता आत्मा में ही है, न कि भौतिक साधनों में। अतः उनका लक्ष्य भौतिक साधन नहीं होते। साधना द्वारा आत्म-बोध प्राप्त करना, यही संबोधि, स्वबोध, समाधि एवं मुक्ति है। आत्मबोध ही अध्यात्म है और इसकी गहराई में जाने से आभास होता है कि मुक्त जीवन आनंदमय, तनावरहित और सरस होता है। प्रत्येक प्राणी कभी न समाप्त होने वाली शांति, स्वतंत्रता और आनन्द चाहता है, परंतु अधिकांश लोग अपने आप को दुःख में पाते हैं और इसका मुख्य कारण है अकुशल या दूषित चिंतन व चित्त की चंचलता और उस पर कोई नियंत्रण न होना।अनियंत्रित चित्त बाह्य भौतिक जगत में उपलब्ध उपभोग-परिभोग की चीजों के संग्रह व उपभोग में व्यस्त रहता है, चाहना करता है। भविष्य के सुनहरे सपने संजोता है और कभी भूतकाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003844
Book TitleJinvani Guru Garima evam Shraman Jivan Visheshank 2011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain, Others
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2011
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size8 MB
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