________________
10 जनवरी 2011
जिनवाणी इन्द्रियों के विषयों, यथा स्वाद, संगीत, मनोहारी दृश्य, काम-वासना आदि की पूर्ति में लगे रहते हैं, इसी प्रकार हमारे मस्तिष्क में कई प्रकार के आवेश होते हैं यथा क्रोध, मान, माया, लोभ, जिनके वशीभूत हो हम अनेक प्रकार के अकरणीय कार्य भी करते हैं। मन व इन्द्रियों को वश में कर आवेशों पर विजय पाकर शरीर के प्रति उदासीन हो जाएँ तब ही जितेन्द्रिय या जिन कहला सकते हैं, यही सच्ची मुक्ति हैं। गीता के अध्याय 4 श्लोक 19 में निम्न उद्घोषणा की है
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
नाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। अर्थः- जिसकी संपूर्ण क्रियाएँ, मन की वासना और संकल्प से रहित हैं वह पण्डित है। वह ज्ञान को प्राप्त होकर सब कर्म सदा के लिए नष्ट कर देता है। ऐसी स्थिति वाले पुरुष को बोधस्वरूप महापुरुषों ने पंडित कहकर संबोधित किया है, अग्नि कर्म करने वाले को नहीं। अनासक्ति के उपाय
विषय सुख की आसक्ति से मन को विमुख कराने के लिए भोग का त्याग आवश्यक है। इसके पाँच बाहरी उपाय हैं - 1. महाव्रत- दूसरों को दुःख पहुँचाने वाली व अहित करने वाली वृत्ति यथा हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह
आदि का त्याग, इन्हें जैन दर्शन में 'महाव्रत', योग दर्शन में 'यम' तथा बौद्ध दर्शन में 'शील' कहा है।
बौद्ध-दर्शन में परिग्रह के स्थान पर मद्य आदि नशीले पदार्थों के त्याग का निर्देश है। 2. नियम- इन्द्रिय, मन, बुद्धि के विकारों का त्याग कर मन को शुद्ध बनाना नियम कहा जाता है। 3. आसन- शरीर व मन की चंचलता, चपलता को त्यागने के लिए सुखपूर्वक एक स्थान पर बैठने का निर्देश
है जिसे योग दर्शन में आसन कहा है तथा जैन दर्शन में सामायिक, संवर कहा है। 4. प्राणायाम- मन को स्थिर करने के लिए अप्रयत्नपूर्वक श्वास के आवागमन पर मन लगाने का निर्देश है।
इससे मन को एकाग्र किया जा सकता है और फिर इच्छानुसार कहीं पर भी ले जाया जा सकता है। इसे
पतंजलि योग में प्राणायाम तथा बौद्ध दर्शन में आनापानसती (आते-जाते सांस की स्मृति रखना) कहा है। 5. प्रत्याहार- इन्द्रियों व मन की वृत्तियों को जो सुख-भोग में बहिर्मुखी हो रही हैं, अंतर्मुखी कर स्व में लौटने ___ को प्रत्याहार व जैन दर्शन में प्रतिसंलीनता कहा है। मनको केन्द्रित करने के उपाय
इन पाँच बाहरी उपायों के अतिरिक्त अन्तरंग उपाय भी हैं। इनमें प्रमुख हैं स्वाध्याय, धारणा, ध्यान, समाधि या कायोत्सर्ग। स्वाध्याय में आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन तथा स्व का अध्ययन समाहित है। धारणा में चित्त को शरीर के किसी एक अंग पर ले जाकर उस पर मन केन्द्रित कर वहां पर हो रही संवेदना को देखा जाता है। धारणा में प्रकट संवेदना को लगातार देखना व मन को केन्द्रित रखना ध्यान है। जब ध्यान
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org