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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड यद्यात्मा स्वात्मतत्वे स्तिमितनिखिलभेदकताना बभाति साक्षात्सद्दृष्टि रेवायमथ विगतरागश्च लोकेकपूज्यः ॥६॥
(युग्मम्) अर्थ-मैं पुद्गलादि पर-द्रव्योंसे भिन्न लक्षण हूँ-सामान्यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्रादि-स्वरूप हूँ। मेरे चैतन्य-स्वरूपसे अन्य जो कुछ भी प्रतिभासित होता है वह सब अनेक गुण-गुणीमें व्याप्त लक्षण वाले पर-पदार्थ हैं । धमद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य, दूसरे जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य भी मेरेसे भिन्न हैं। तथा आत्मा और कर्मके निमित्तसे होनेवाली राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया और लोभादिरूप परिणति भी मुझसे भिन्न है।
इस तरह निश्चयकर जिस आत्माका सम्पूर्ण दर्शनमोहरूप परिणाम भले प्रकार नष्ट होगया है वह निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि है । और यदि यह आत्मा समस्त संकल्प-विकल्परूप भेदजालसे रहित होकर स्वात्म-तत्त्वमें स्थिर होता है तो वह सिद्ध परमात्माके ही प्रायः सदृश है । रागादि-विभाव-भावोंसे रहित यह निश्चयसम्यग्दृष्टि जीव ही वीतराग है और लोकमें अद्वितीय
__ भावार्थ-मैं शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ, ज्ञाता दृष्टा हूँ। संसारके ये सब पदार्थ मेरी आत्मासे भिन्न हैं, मैं उनका नहीं हूँ और न वे मेरे हैं; क्योंकि वे पर हैं। मेरे ज्ञायक स्वरूपके सिवाय जो भी अन्य पदार्थ देखने जानने या अनुभव करने में आते हैं वे मेरी आत्मासे सर्वथा जुदे जुदे हैं। परन्तु यह आत्मा विपरीताभिनिवेशके कारण उन्हें व्यर्थ ही अपने मान रहा है-स्त्री, पुत्र, मित्र और धन सम्पदादि पर-पदार्थों में आत्मबुद्धि कर रहा है। यह
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