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वार सेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
विपरीत कल्पना ही इसके दुःखका मूल कारण है। परन्तु जब आत्मामें दर्शनमोहका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है उस समय विवेक-ज्योति जागृत होकर आत्मामें सद्दृष्टिका उदय-आविर्भाव हो जाता है और वह अपने स्वरूपमें ही लीन हो जाता है। सदृष्टिके उदित होते ही वे सब पुरातन संकल्प-विकल्प विलीन हो जाते हैं जो आत्म स्वरूपकी उपलब्धिमें बाधक थे, जिनके कारण स्वस्वरूपका अनुभव करना कठिन प्रतीत होता था और जिनके उदय-वश आत्मा अपने हितकारी ज्ञान और वैराग्यको दुःखदाई अनुभव किया करता था। सद्दृष्टि होनेपर उन रागादि-विभाव-भावोंका विनाश हो जाता है और आत्मा अपने उसी विज्ञानघन चिदानन्दस्वरूप में तन्मय हो जाता है। यह सब सद्दृष्टिका ही माहात्म्य है। व्यवहारसम्यग्ज्ञानका स्वरूपजीवाजीवादितत्त्वं जिनवरगदितं गोतमादिप्रयुक्तं वक्रग्रीवादिसूक्तं सदमृतविधुसूर्यादिगीतं यथावत् । तत्त्वज्ञानं तथैव स्वपरभिदमलं द्रव्यभावार्थदक्षं संदेहादिप्रमुक्तं व्यवहरणनयात्संविदुक्तं दृगादि ॥१०॥
अर्थ-जो जीव,अजीव,आश्रव,बंध,संवर, निर्जरा और मोक्ष रूप सप्त तत्त्व जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे गए हैं और गौतमादि गणधरोंके द्वारा प्रयुक्त हुए हैं-द्वादशांगश्रुतरूपमें रचे गए हैं । वक्रग्रीवादि (कुन्दकुन्दादि) आचार्योंके द्वारा प्रतिपादित हैं और श्रीअमृतचन्द्रादि आचार्योंके द्वारा जिस प्रकार गाए गए हैं, उनका * मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः ।
-- समाधितन्त्रे, श्रीपूज्यपादः .
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