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________________ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड उसीप्रकार तत्त्वज्ञान तथा स्व-परका भेदविज्ञान कराने वाला है। द्रव्य-भावरूप पदार्थके दिखानेमें दक्ष है। संदेहादिसे मुक्त हैसंशय, विपर्यय और अनध्यवसायादि मिथ्याज्ञानोंसे रहित है और सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है वह व्यवहारनयसे सम्यग्ज्ञान है अर्थात् उसे व्यवहार सम्यग्ज्ञान जानना चाहिये ।। ___ भावार्थ-नय और प्रमाणोंसे जीवादिपदार्थोंको यथार्थजानना सम्यग्ज्ञान है* अर्थात् जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसी रूपसे परिज्ञान करना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। यह सम्यग्ज्ञान ही स्व और परका भेदविज्ञान कराने में समर्थ है और वस्तुके याथातथ्यस्वरूपको संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय-रहित जानता है । सम्यग्ज्ञानका ही यह माहात्म्य है कि जिस पूर्वापार्जित अशुभ कर्मसमूहको अज्ञानी जीव करोड़ों वर्षकी तपश्चर्यासे भी दूर नहीं करपाता उसी कर्म-समूहको ज्ञानी क्षणमात्रमें दूर कर देता है । तात्पर्य यह कि भेदज्ञानी चैतन्यस्वभावके घातक कर्मोका नाश क्षणमात्रमें उसी तरहसे कर देता है जिस तरह तृणोंके ढेरको अग्नि जला देती है। स्व-परके भेदविज्ञानद्वारा जिन्होंने शुद्धस्वरूपका अनुभव प्राप्त कर लिया है वे ही कर्मबन्धनसे छूट कर सिद्ध हुए हैं । और जो उससे शून्य हैं* 'नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थयाथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम् ।' -सवार्थसिद्धि १-१ xजं अण्णाणी कम्मं बवेदि भवसयमहत्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ।। + क्षयं नयति भेदज्ञश्चिन्द्र पप्रतिघातकम् । क्षणेन कर्मणां राशि तृणानां पावकं यथा ॥ १२ ॥ --तत्त्वज्ञानतरंगिणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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