________________
चीर सेवा मन्दिर - ग्रन्थमाला
परपदार्थोकी परिणतिको ही आत्म-परिणति मान रहे हैं वे ही कर्मबंधन से बंध रहे हैं । । इसी भावको अध्यात्मकवि पं० बनारसीदासजी निम्र शब्दों में प्रकट करते हैं :
भेदज्ञान संवर जिन पायो, सो चेतन शिवरूप कहायो । भेदज्ञान जिनके घट नाहीं, ते जड़ जीव बंधे घट माहीं || ||
इस तरह सम्यग्ज्ञान ही वस्तुके यथार्थस्वरूपका अवबोधक है और उसीसे हेयोपादेयरूप तत्त्वकी व्यवस्था होती है । अतः हमें तत्त्वश्रद्धानी बनने के साथ साथ सम्यग्ज्ञानप्राप्तिका भी अनुष्ठान करते रहना चाहिये ।
१४
निश्चयसम्यग्ज्ञानका स्वरूपस्वात्मन्येवोपयुक्तः परपरिणतिभिच्चिद्गुणग्रामदर्शी चिच्चित्पर्याय भेदाधिगमपरिणतच्चाद्विकल्पावलीढः । सः स्यात्सद्बोधचन्द्रः परमनयगतत्वाद्विरागी कथंचिच्चेदात्मन्येव मग्नश्च्युतसकलनयो वास्तव ज्ञानपूर्णः ॥ ११ ॥
अर्थ - जो अपने स्वरूप में ही उपयोग-विशिष्ट है— परपदार्थोंकी परिणति से भिन्न है, चैतन्यरूप गुणसमूहका दृष्टा है--चेतनाके चिदात्मक पर्याय-भेदों का परिज्ञापक होने से सविकल्प है - ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप पर्यायभेदों का जाननेवाला है अतएव सविकल्प है, विरागी है— रागद्वेषादिसे रहित है और कथंचित स्वात्मा में ही मग्न है - स्थिर है, गमादि
+ भेदविज्ञानतः सिद्धः सिद्धा ये किल तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल
Jain Educationa International
केचन ।
केचन || -नाटकसमयसार ६
For Personal and Private Use Only
6).
www.jainelibrary.org