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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड रीताभिनिवेशरहित और प्रमाण-नयादिके विचारसहित जो श्रद्धान होता है उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन सात तत्त्वोंका उपदेश करनेवाले सच्चे देव, शास्त्र और गुरुका तीनमूढ़ता और अष्टमदसे रहित श्रद्धान करना भी व्यवहार सम्यग्दर्शन है । इसके तीन भेद हैं-उपशमसम्यक्त्व, २ क्षायिकसम्यक्त्व और ३ क्षायोयशमिकसम्यक्त्व ।
१. उपशमसम्यक्त्व-अनादि और सादि मिथ्यादृष्टि जीवके क्रमशः दर्शनमोहनीयकी एक वा तीन और अनन्तानुबंधीकी चार इन पाँच अथवा सात प्रकृतियों के उपशमसे जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व क्षायिकके समान ही अत्यन्त निर्मल होता है। जैसे कीचड़ सहित पानीमें कतकफल डाल देनेसे उसकी कीचड़ नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ एवं निर्मल हो जाता है उसी प्रकार उक्त पाँच वा सात प्रकृतियोंके उपशमसे जो आत्म-निर्मलता अथवा विमल-रुचि होती है वह उपशम सम्यक्त्त्व कहलाती है।। * जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।
-पुरुषार्थसिद्धय पाये, श्रीअमृतचन्द्रसूरिः श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
-रत्नकाण्डश्रावकाचारे, स्वामिसमन्तभद्रः * (क) सप्तप्रकृत्युपशमादौपशमिकसम्यक्त्वं ।१॥ अनंतानुबंधिनः
कषायाः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः चारित्रमोहस्य । 'मिथ्यात्व-सम्यमिथ्यात्व-सम्यक्त्वानि त्रीणि दर्शनमोहस्य । अासां सप्तानां प्रकृतिनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वमिति ।'
--तत्त्वार्थरा० २-३
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