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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला भावार्थ-अनादिकालीन मोह-शत्रुसे संसारके सभी प्राणी भयभीत हैं। मोहसे ही संसार बढ़ता है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं और उनसे पुनः राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया और लोभादि विभावपरिणामोंकी सृष्टि होती है। मोहके रहते हुए जीवको आत्मतत्त्वकी प्रतीति नहीं हो पाती-वह भ्रमवश अपने चिदानन्दस्वरूपसे भिन्न स्त्री-मित्र और धन-सम्पदादि परपदार्थोमें आत्म-बुद्धि करता रहता है-अपनेसे सर्वथा भिन्न होते हुए भी इन्हें अभिन्न ही समझता है। और इन्हींकी प्राप्ति एवं संरक्षणमें अपनी अमूल्य मानव-पर्यायको यों ही गँवा देता हैअात्मस्वरूपकी ओर दृष्टिपात भी नहीं करपाता। यह सब मोहका विचित्र विलास है। अतः ग्रन्थकार कविवर राजमल्लजी अपनी यह इच्छा व्यक्त करते हैं कि मेरा यह मोह और मोह-क्षोभसे रहित तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसे युक्त ऐसे सम्यकचारित्रसे जो च्युति हो रही है वह भी इस अध्यात्मकमलमार्तण्डके प्रकाशन एवं परिशीलनसे मेरे आत्मासे विनाशको प्राप्त होवे-मुझे शुद्धरत्नत्रयकी प्राप्ति होवे । आचार्य अमृतचन्द्रने भी समयसारकी टीका करते हुए उसके कलशाके तृतीय पद्यमें समयसारकी व्याख्यासे ख्याति, लाभ और पूजादिकी कोई अपेक्षा न रखते हुए केवल परमविशुद्धिकी-वीतरागताकी-कामना की है। क्योंकि आत्म-परिणति अनादिकर्मबंधसे और मोहकर्मके विपाकसे निरंतर कलुषित रहती है-राग-द्वेषादि-विभाव-परिणतिसे मलिन रहती है। इसी तरह उक्त कलशाका हिन्दी पद्यरूप अनुवाद करनेवाले पं० बनारसीदासजी भी एक पद्यमें परम-शुद्धता-प्राप्तिकी अाकांक्षा व्यक्त करते हैं । वह पद्य इस प्रकार है: हूँ निश्चय तिहुँकाल शुद्ध चेतनमय-मूरति । पर-परिणति-संयोग भई जडता विस्फूरति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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