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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड आत्मज्ञानकी प्राप्ति और परम्परासे दूसरोंको बोध कराना ही मेरा एक विशुद्ध लक्ष्य है । अतः हे लोकमाता जिनवाणी ! तुम मुझपर प्रसन्न होओ, जिससे मैं इस ग्रन्थके निर्माण कार्यको पूरा करनेमें समर्थ होऊँ। ___ ग्रन्थके निर्माण में ग्रन्थकारका प्रयोजनमोहः सन्तानवर्ती भव-वन-जलदो द्रव्यकौघहेतुस्तत्त्वज्ञाननमूर्तिर्वमनमिव खलु श्रद्दधानं न तत्त्वे । मोह-क्षोभप्रमुक्ता[] दृगवगम-युतात्सच्चरित्राच्च्युतिश्च गच्छत्वध्यात्मकञ्जधुमणिपरपरिख्यापनान्मे चितोऽस्तम्॥४॥
अर्थ-जो सन्ततिसे चला आरहा है-बीज-वृक्षादिकी तरह अनादिकालसे प्रवर्तमान है, भवरूपी वनको सिंचन करनेवाला जलद है-उसे बढ़ानेके लिये मेघ-स्वरूप है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म-समूहका कारण है, तत्त्वज्ञानका विघातक मूर्तरूप हैहिताहितविवेकका साक्षात् विनाश करनेवाला है और वमनके समान तत्त्वमें श्रद्धाको उत्पन्न नहीं होने देता। ऐसा वह मोह, और मोह-क्षोभसे विहीन तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसे युक्त जो सम्यकचारित्र, उससे जो च्युति होरही है वह, इस तरह ये दोनों ( मोह और रत्नत्रय-च्युति ) ही 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' के विशद व्याख्यानसे मेरे चित्-आत्मासे अस्तको प्राप्त होवे-दूर होवें । * श्रदीत न तत्त्वे' इत्यपि पाठः सच्चरित्राद्यता यम् इत्यपि ।
पर-परितिहेतोमोहनाम्नोऽनुभावा--- दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्मापितायाः। मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-- भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ।। ३॥-समयसारकलशा
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