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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला वीतराग परमात्माको नमस्कार करके मैं (राजमल्ल) मोक्ष-प्राप्ति तथा भव-तापकी शान्तिके लिये--संसारमें होनेवाले मोहादिजन्य परिणामोंकी समाप्तिके लिये-अनन्तधर्मवाले उस समयकाआत्मद्रव्यका वर्णन करता हूँ जो अतीन्द्रिय है-चक्षुरादि इन्द्रियोंसे गम्य नहीं है-, जिसका स्वरूप कुवादियोंके प्रवादोंसे अखण्डित है-मिथ्या-मतियोंकी मिथ्या-युक्तियोंसे खण्डनीय नहीं है और जो अद्भुत पदार्थतत्त्व है-अनेकप्रकारकी विचित्रताओंको लिये हुए है। .
भावार्थ-चिदात्मक शुद्ध आत्मस्वभावरूप परमात्माको नमस्कार करके मैं सांसारिक संतापको शान्त करने और शाश्वत निराकुलतात्मक मोक्षको प्राप्त करनेके लिये अनन्त धर्मात्मक अतीन्द्रिय
और अभेदस्वरूप जीव-तत्त्वका मुख्यतः कथन करता हूँ। साथ ही, गौणरूपसे अजीवादि शेष पदार्थों तथा तत्त्वोंका भी वर्णन करता हूँ।
नमोऽस्तु तुभ्यं जगदम्ब भारति प्रसादपात्रं कुरु मां हि किङ्करम् । तव प्रसादादिह तत्त्वनिर्णयं
यथास्ववोधं विदधे स्वसंविदे ॥३॥ अर्थ-हे जगन्माता सरस्वति ! मैं तुम्हें सादर प्रणाम करता हूँ, मुझ सेवकको अपनी प्रसन्नताका पात्र बनाओ-मुझपर प्रसन्न होओ, मैं तुम्हारी प्रसन्नतासे ही इस प्रन्थमें जीवादि-तत्त्वोंका निर्णय अपनी बुद्धिके अनुसार आत्मज्ञानकी प्राप्तिके लिये करता हूँ।
भावार्थ-मैं इस ग्रन्थकी रचना लोकमें ख्याति, लाभ तथा पूजादिकी प्राप्तिकी दृष्टिसे नहीं कर रहा हूँ । किन्तु इसमें साक्षात तो
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