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अध्यात्म-कमल-मातण्ड
परहेतु
पाय, चेतन
पर- रच्चय ।
करत, नर
बहुविध नच्चय ||
मोहकर्म ज्यों धतूर- रसपान अब समयसार वर्णन करत परमशुद्धता होहु मुझ । नया बनारसिदास कहि मिटो सहज भ्रमकी अरु |||४||
मोक्षका स्वरूपमोक्षः स्वात्मप्रदेशस्थितविविधविधेः कर्मपर्यायहानिर्मूलात्तत्कालचित्ताद्विमलतरगुणोद्भृतिरस्या यथावत् ।
स्याच्छुद्धात्मोपलब्धेः परमसमरसी भावपीयूषतृप्तिः शुक्लध्यानादिभावा परकरणतनोः संवरान्निर्जरायाः ॥ ५ ॥
५
अर्थ - अपने आत्मप्रदेशोंके साथ ( एक क्षेत्रावगाहरूपसे ) स्थित नानाविध ज्ञानावरणादि कर्मोंका कर्म-पर्यायरूपसे अत्यन्त क्षय होजाना — उनका आत्मासे पृथक होजाना द्रव्य-मोक्ष है, और इस द्रव्य - मोक्षकालीन आत्मासे जो यथायोग्य विशुद्ध गुणोंका आविर्भाव होता है वह भाव- मोक्ष है, जो कि शुद्धात्माकी उपलब्धिस्वरूप है । इस शुद्धात्माकी उपलब्धि होनेपर ही परमसमतारसरूप अमृतका पान होकर तृप्ति (आत्मसंतुष्टि) होती है । और यह शुद्धात्माकी उपलब्धि शुक्लध्यानादिरूप संघर तथा निर्जराआविर्भूत होती है ।
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भावार्थ-आगम में मोक्षके द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष ऐसे दो भेदों का वर्णन करके मोक्ष के स्वरूपका कथन किया गया है । उन्हीं दोनों मोक्षोंका स्वरूप यहाँ बतलाया गया है । दूध-पानीकी तरह आत्माके साथ ज्ञानावरणादि आठों कर्म मिले हुए हैं, उनकी
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