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प्रस्तावना
तथापि भेदु उपजाइ कहवा जोग्य छै । विशेषण कहिवा पाषै वस्तुको ज्ञानु उपजै नहीं । पुनः किं विशिष्टाय भावाय और किसौ छै भाव । समयसाराय समय कहतां यद्यपि समय शब्दका बहुत अर्थ छै तथापि एवसर समय शब्द समान्यपर्ने जीवादि सकल पदार्थ जानिवा । तिहिं मांहि जु कोई साराय कहता सार है । सार कहतां उपादेय छै जीव वस्तु, तिहिं कौं म्हांको नमस्कारु | इहिं विशेषणको यहु भाव छै - सार पनौ जानि चेतना पदार्थं कौं नमस्कारु प्रमाण राख्यो । असार पनौं जानि अचेतन पदार्थकों नमस्कार निषेध्यौ । आगे कोई वितर्क करसी जु सब ही पदार्थ आपना पना गुण विराजमान है, स्वाधीन है, कोई किस ही कौ श्राधीन नहीं, जीव पदार्थकौं सारपनौं क्यों घटै छै । तिहिको समाधान करिवाकहुं दोइ विशेषण कह्या ।”+
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पंचाध्यायी और लाटीसंहिता
पञ्चाध्यायीका लाढीसंहिता के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है, अतः यहाँ दोनोंका एक साथ परिचय कराया जाता है ।
कविवरकी कृतियोंमें जिस पंचाध्यायी ग्रन्थको सर्वप्रधान स्थान प्राप्त है और जिसे स्वयं ग्रन्थकारने ग्रन्थ-प्रतिज्ञामें ग्रन्थराज लिखा है वह आजसे कोई ३८-३६ वर्ष पहले प्रायः श्रप्रसिद्ध था - कोल्हापुर, अजमेर श्रादिके कुछ थोड़े से ही शास्त्र भण्डारोंमें पाया जाता था और बहुत ही कम विद्वान् उसके अस्तित्वादिसे परिचित थे । शक संवत् १८२८ ( ई० सन् १६०६ ) में अकलूज ( शोलापुर) निवासी गांधी नाथारंगजीने इसे कोल्हापुरके ‘जैनेन्द्र मुद्रणालय' में छपाकर बिना ग्रन्थकर्ता के नाम और बिना किसी प्रस्तावना के ही प्रकाशित किया । तभी से यह ग्रन्थ विद्वानोंके
+ विनाः ।Î सूरतकी उक्त मुद्रित प्रतिमें भाषादिका कुछ परिवर्तन देखने में आया, अतः यह अंश 'नयामन्दिर' देहलीकी सं० १७५५ द्वितीय ज्येष्ठ वदि ४ की लिखी हुई प्रतिपस्से उदधृत किया गया है ।
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