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( ख ) (२) प्रति-परिचय
यद्यपि इस ग्रन्थकी लिखित प्रति कोशिश करनेपर भी हमें प्राप्त न हो सकी। और इस लिये उक्त ग्रन्थमालामें मुद्रित प्रतिके आधारपर ही अपना अनुवाद और सम्पादनका कार्य करना पड़ा। इस प्रतिकी आधारभूत दो प्रतियोंका परिचय भी पं० जगदीशचन्दजी शास्त्रीने कराया है, जो वि०सं० १६६३ और वि० सं० १८४४ की लिखी हुई हैं और जो दोनों ही अशुद्ध बतलाई गई हैं। प्रस्तुत संस्करणकी आधारभूत उक्त छपी प्रतिमें भी कितनी ही अशुद्धियाँ पाई जाती हैं । इनका संशोधन प्रस्तुत संस्करणमें अर्थानुसन्धानपूर्वक यथासाध्य अपनी ओरसे कर दिया गया है और उपलब्ध अशुद्ध पाठको फुटनोटमें दे दिया गया है, जिससे पाठकगण उससे अवगत हो सके। . (३) प्रस्तुत संस्करण-परिचय
'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' जितना महत्वपूर्ण ग्रन्थ है शायद उतना सुन्दर यह संस्करण नहीं बन सका। फिर भी इस संस्करणमें मूल विषयको पाठ-शुद्धिके साथ अर्थ और भावार्थके द्वारा स्पष्ट करनेका भरसक प्रयत्न किया गया है। इसके अलावा फुटनोटोंमें ग्रन्थान्तरोंके कहीं कहीं कुछ उद्धरण भी दे दिये गये हैं । प्रस्तावना, विषयानुक्रमणिका और पद्यानुक्रमणी आदिकी भी संयोजना की गई है। और इन सबसे यह संस्करण बहुत कुछ उपयोगी बन गया है। ____ अन्तमें अपने सहृदय पाठकोंसे निवेदन है कि इस अनुवादादिमें कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो वे हमें सूचित करनेकी कृपा करें, जिससे अगले संस्करणमें उसका सुधार हो सके।
वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा ( सहारनपुर)
दरबारीलाल ता० ४-६-१६४४
(न्यायाचार्य)
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