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सम्पादकीय
(१) सम्पादन और अनुवाद
आजसे कोई सतरह साल पहले मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जीने 'कवि राजमल्ल और पंचाध्यायी' शीर्षक अपने लेखमें इस 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' ग्रन्थके उपलब्ध होनेकी सूचना की थी, जिससे इसके प्रति जनताकी जिज्ञासा बढ़ी थी। उसके कोई नौ वर्ष बाद ( विक्रम सं० १९६३ में) यह ग्रन्थ पं० जगदीशचन्द्रजी शास्त्री, एम० ए० द्वारा संशोधित होकर माणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थ-मालामें 'जम्बूस्वामीचरित' के साथ प्रकाशित हुआ था। __ ग्रन्थकी भाषा संस्कृत होने के साथ साथ प्रौढ और दुरूह होने के कारण शायद ही कुछ लोगोंका ध्यान इसके पठन-पाठन
और प्रचार-प्रसारकी ओर गया हो। और इस तरह यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ सर्वसाधारण अध्यात्म-प्रेमियोंके स्वाध्यायकी चीज़ नहीं बन सका । और मेरे ख्यालसे प्रायः ग्रन्थगत-दुरूहताके ही कारण इसका अब तक अनुवादादि भी रुका पड़ा रहा । अस्तु,
अन्यत्र कहींसे भी इस ओर प्रयत्न होता हया न देखकर और जनताको इस ग्रन्थ-रत्नके स्वाध्यायसे वञ्चित पाकर वीर-सेवा-मन्दिरने यह उचित और आवश्यक समझा कि अनुवादादिके साथ इसका एक उपयोगी और सुन्दर संस्करण निकाला जावे। तदनुसार यह कार्य मैंने और सुहृदूर पं० परमानन्द जी शास्त्रीने अपने हाथों में लिया और इसे यथासाध्य शीघ्र सम्पन्न किया, परन्तु प्रेस आदि कुछ अनिवार्य कारणों के वश यह कार्य इससे पहले प्रकाशमें न आ सका। अब यह पाठकोंके हाथों में जा रहा है, यह प्रसन्नताकी बात है।
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