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प्रस्तावना
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नहीं आया बल्कि सब प्रकारसे अपने अनुकूल अँचा है। इसीसे वे अन्तको यहीं स्थित हो गये हैं और यहाँके अतीव दर्शनीय वैराट-जिनालयमें रहने लगे हैं, जहाँ संभवतः काष्ठासंघी भट्टारक क्षेमकीति-जैसे कुछ जैन मुनि उस समय निवास करते थे और जो अक्सर जैन साधुअोंकी निवासभूमि बना रहता था। यहां उन्हें मुनिजनोंके सत्समागम तथा ताल्हू जैसे विद्वान् की गोष्ठीके अलावा अग्रवालवंशी मंगलगोत्री साहु फामनका सत्सहाय एवं सत्संग प्राप्त है, उनके दान-मान-अासनादिकसे वे सन्तुष्ट हैं और उन्हींकी प्रार्थनापर उन्हींके जिनालयमें स्थित होकर एक सत्कविके रूपमें लाटीसंहिताकी रचना कर रहे हैं। इस रचनाके समय (वि० सं० १६४१ में) उनकी लेखनी पहलेसे अधिक प्रौढ तथा गंभीर बनी हुई है, उनका शास्त्राभ्यास तथा अनुभव बहुत बढ़ाचढ़ा नज़र आता है और वे सरल तथा मृदूक्तियोंद्वारा युक्तिपुरस्सर लिखनेकी कलामें और भी अधिक कुशल जान पड़ते हैं । लाटीसंहिताका निर्माण करते हुए उनके हृदयमें पंचाध्यायी नामसे एक ऐसे 'ग्रन्थराज' के निर्माणका भाव घर किये हुए है जिसमें धर्मका सरल तथा कोमल उक्तियों द्वारा सबके समझने योग्य विशद तथा विस्तृत विवेचन हो। और उसे पूरा करने के लिये वे संभवतः लाटीसंहिताके अनन्तर ही उसमें प्रवृत्त हुए जान पड़ते हैं, जिसके फलस्वरूप ग्रन्थके प्रायः दो प्रकरणोंको वे लिख भी चुके हैं। परन्तु अन्तको दैवने उनका साथ नहीं दिया, और इसलिये कालकी पुकार होते ही वे अपने सब संकल्पोंको बटोरते हुए उस ग्रन्थराजको निर्माणाधीन-स्थितिमें ही छोड़कर स्वर्ग सिंधार गये हैं !! अध्यात्मकमलमार्तण्डको वे इससे कुछ पहले बना चुके थे, और वह भी उनके अन्तिम जीवनकी रचना जान पड़ती है।
इसके सिवाय, अागरा पहुँचनेसे पहलेके उनके जीवनका कोई पता नहीं । यह भी मालूम नहीं कि ये आगरा कबसे कब तक ठहरे, कहाँ कहाँ होते हुए नागौर पहुँचे तथा इस बीचमें साहित्यसेवाका कोई दूसरा काम उन्होंने किया था कि नहीं । और न उन बातोंका ही अभी तक कहींसे कोई
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