________________
७४
अध्यात्म कमल-मार्तण्ड क्षितिपतिकृतसेवं यस्य पादारविन्द, निजजन-नयनाली,गभोगाभिरामं । जगति विदितमेतद्भरिलक्ष्मीनिवासं, स च भवतु कृपालोप्येष मे भारमल्लः ॥२६५।। (मालिनी)
'जिनके चरणकमल भूपतियोंसे सेवित हैं और स्वकीयजनोंकी दृष्टिपंक्तिरूपी भ्रमरोंके लिये भोगाभिराम हैं, और जो इस, जगतमें महालक्ष्मीके निवासस्थान हैं, ऐसे ये भारमल्ल मुझपर 'कृपाल' होवें ।'
पिछले दोनों पद्योंसे मालूम होता है कि कविराजमल्ल राजाभारमल्लकी कृपाके अभिलाषी थे और उन्हें वह प्राप्त भी थी। ये पद्य मात्र उसके स्थायित्वकी भावनाको लिये हुए हैं।
(१०) जब राजा भारमल्ल इतने बढ़े चढ़े थे तब उनसे ईर्षाभाव रखनेवाले और उनकी कीर्ति-कौमुदी एवं ख्यातिको सहन न करनेवाले भी संसारमें कुछ होने ही चाहिये; क्योंकि संसारमें अदेखसका भावकी मात्रा प्रायः बढ़ी रहती है और ऐसे लोगोंसे पृथ्वी कभी शून्य नहीं रही जो दूसरों के उत्कर्षको सहन नहीं कर सकते तथा अपनी दुर्जन-प्रकृतिके अनुसार ऐसे बढ़े चढ़े सजनोंका अनिष्ट और अमंगल तक चाहते रहते हैं । इस सम्बन्धमें कविवरके नीचे लिखे दो पद्य उल्लेखनीय हैं, जो उक्त कल्पनाको मूर्तरूप दे रहे हैं :
"जे वेस्सवग्गमणुश्रा रीसि कुव्वंति भारमल्लस्स ।
देवेहि वंचिया खलु अभगाऽवित्ता णरा हुँति ॥१५८॥"(गाहा) "चिंतति जे वि चित्ते अमंगलं देवदत्ततणयस्स । ते सव्वलोयदिट्ठा रणट्ठा पुरदेसलच्छिभुम्मिपरिचत्ता (गाहिनिया)
पहले पद्यमें बतलाया गया है कि- 'वैश्यवर्गके जो मनुष्य भारमल्ल की रीस करते हैं-ईर्षाभाषसे उनकी बराबरी करते हैं-वे देवसे ठगाये गये अथवा भाग्यविहीन हैं; ऐसे लोग अभागी और निर्धन होते हैं।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org