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प्रस्तावना
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वर्तमान मनुष्योंको जीवनदान देने और उनका कल्याण साधने के लिये विधाताका निश्चित विधान है।' सत्यं जाड्यतमोहरोऽपि दिनकृजन्तोईशोरप्रियश्चन्द्रस्तापहरोऽपि जाड्यजनको दोषाकरोंशुक्षयी। निर्दोषः किल भारमल्ल ! जगतां नेत्रोत्पलानंदकचन्द्रेणोष्णकरेण संप्रति कथं तेनोपमेयो भवान् ॥२७६।। (शार्दूल)
'यह सच है कि सूर्य जडता और अंधकारको हरनेवाला है; परन्तु जीवोंकी आँखोंके लिये अप्रिय है-उन्हें कष्ट पहुँचाता है । इसी तरह यह भी सच है कि चन्द्रमा तापको हरनेवाला है; परन्तु जड़ता उत्पन्न करता है, दोषाकर है ( रात्रिका करनेवाला अथवा दोषोंकी खान है ) और उसकी किरणें क्षयको प्राप्त होती रहती हैं। भारमल्ल इन सब दोषोंसे रहित है, जगजनोंके नेत्रकमलोंको आनन्दित भी करने वाला है। इससे हे भारमल्ल ! आप वर्तमानमें चन्द्रमा और सूर्य के साथ उपमेय कैसे हो सकते हैं ? अापको उनकी उपमा नहीं दी जा सकती-आप उनसे बढ़े
अलं विदितसंपदा दिविज-कामधेन्वाह्वयैः, कृतं किल रसायनप्रभृतिमंत्रतंत्रादिभिः । कुतश्चिदपि कारणादथ च पूर्णपुण्योदयात , यदीह सुरनंदनो नयति मां हि दृग्गोचरं ।।२६६ ।। (पृथ्वी) ___ किसी भी कारण अथवा पूर्णपुण्यके उदयसे यदि देवसुत भारमल्ल मुझे अपनी दृष्टिका विषय बनाते हैं तो फिर दिव्य कामधेनु आदिकी प्रसिद्ध सम्पदासे मुझे कोई प्रयोजन नहीं और न रसायण तथा मंत्रतंत्रादिसे ही कोई प्रयोजन है-इनसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है उससे कहीं अधिक प्रयोजन अनायास ही भारमल्लकी कृपादृष्टिसे सिद्ध हो जाता है।'
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