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________________ प्रस्तावना ७३ वर्तमान मनुष्योंको जीवनदान देने और उनका कल्याण साधने के लिये विधाताका निश्चित विधान है।' सत्यं जाड्यतमोहरोऽपि दिनकृजन्तोईशोरप्रियश्चन्द्रस्तापहरोऽपि जाड्यजनको दोषाकरोंशुक्षयी। निर्दोषः किल भारमल्ल ! जगतां नेत्रोत्पलानंदकचन्द्रेणोष्णकरेण संप्रति कथं तेनोपमेयो भवान् ॥२७६।। (शार्दूल) 'यह सच है कि सूर्य जडता और अंधकारको हरनेवाला है; परन्तु जीवोंकी आँखोंके लिये अप्रिय है-उन्हें कष्ट पहुँचाता है । इसी तरह यह भी सच है कि चन्द्रमा तापको हरनेवाला है; परन्तु जड़ता उत्पन्न करता है, दोषाकर है ( रात्रिका करनेवाला अथवा दोषोंकी खान है ) और उसकी किरणें क्षयको प्राप्त होती रहती हैं। भारमल्ल इन सब दोषोंसे रहित है, जगजनोंके नेत्रकमलोंको आनन्दित भी करने वाला है। इससे हे भारमल्ल ! आप वर्तमानमें चन्द्रमा और सूर्य के साथ उपमेय कैसे हो सकते हैं ? अापको उनकी उपमा नहीं दी जा सकती-आप उनसे बढ़े अलं विदितसंपदा दिविज-कामधेन्वाह्वयैः, कृतं किल रसायनप्रभृतिमंत्रतंत्रादिभिः । कुतश्चिदपि कारणादथ च पूर्णपुण्योदयात , यदीह सुरनंदनो नयति मां हि दृग्गोचरं ।।२६६ ।। (पृथ्वी) ___ किसी भी कारण अथवा पूर्णपुण्यके उदयसे यदि देवसुत भारमल्ल मुझे अपनी दृष्टिका विषय बनाते हैं तो फिर दिव्य कामधेनु आदिकी प्रसिद्ध सम्पदासे मुझे कोई प्रयोजन नहीं और न रसायण तथा मंत्रतंत्रादिसे ही कोई प्रयोजन है-इनसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है उससे कहीं अधिक प्रयोजन अनायास ही भारमल्लकी कृपादृष्टिसे सिद्ध हो जाता है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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