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प्रस्तावना
वह श्रीमाल भारमल्ल है, जो कि मनुष्योंके गर्वको हरनेके लिये 'मानस्तंभ' के समान है।
सिरिभारमल्लदिणमणि-पायं सेवंति एयमणा । तेसिं दरिद्दतिमिरं णियमेण विरणस्सदे सिग्घं ।।१५।।(विग्गाहा) इसमें बतलाया है कि 'जो एकमन होकर भारमल्लरूपी दिनमणि (सूर्य) की पादसेवा करते हैं उनका दरिद्रान्धकार नियमसे शीघ्र दूर होजाता है। प्रहसितवदनं कुसुमं सुजसु सुगंधं सुदानमकरंदं । तुव देवदत्तनंदन धावति कविमधुपसेणि मधुलुद्धा ॥ (उग्गाहा) __ यहाँ यह बतलाया है कि-'देवदत्तनन्दन-भारमल्लका प्रफुल्लित मुख ऐसा पुष्प है जो सुयश-सुगंध और सुदानरूपी मधुको लिये हुए है, इसीसे मधुलुब्ध कवि-भ्रमरोंकी पंक्ति उसकी ओर दौड़ती है-दानकी इच्छासे उसके चारों ओर मँडराती रहती है।
खाण | सुलितान मसनंद हदभुम्मिया, सज्ज-रह-वाजि-गज-राजि मदधुम्मिया। तुज्झ दरबार दिनरत्ति तुरगा गया,
देव सिरिमालकुलनंद करिए मया ॥२६।। (निशिपाल) इसमें खान, सुलतान, मसनद और सजे हुए रथ-हाथी-घोड़ोंके उल्लेखके साथ यह बतलाया है कि राजा भारमल्लके दरबारमें दिनरात तुरक लोग आकर नमस्कार करते थे—उनका ताँतासा बंधा रहता था । एक सेवक संग साहि भंडार कोडि भरिजिए, एक कित्ति पढंत भोजिग दान दाइम दिजिए। भारमल्ल-प्रताप-वण्णण सेसणाह असक्को , एकजीहमओ अमारिस केम होइ ससक्कओ ॥२७४।। (चचरी)
ग्रिन्थ-प्रतिमें अनेक स्थानोंपर 'ख' के स्थानपर 'ष' का प्रयोग पाया जाता है तदनुसार यहाँ 'पाण' लिखा है।
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