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________________ प्रस्तावना "पांडे राजमल्ल जिनधर्मी, समयसार नाटकके मर्मी। तिन्हें गरंथकी टीका कीनी, बालबोध सुगम कर दीनी॥२३॥ इहविधि बोध-वचनिका फैली, समै पाइ अध्यातम शैली। प्रगटी जगमाहीं जिनवानी, घरघर नाटक-कथा बखानी॥२४॥ नगर आगरे मांहि विख्याता, कारण पाइ भये बहु ज्ञाता। पंच पुरुष अति निपुन प्रवीने, निसदिन ज्ञानकथा-रसभीने।।२।। नाटक समयसार हित जीका, सुगमरूप राजमल टीका । कवितबद्ध रचना जो होई, भाखा ग्रन्थ पढ़े सब कोई ॥३५॥ तब बनारसी मनमें आनी, कीजै तो प्रगटै जिनवानी। पंच पुरुषकी आज्ञा लीनी, कवितबंधकी रचना कीनी ॥३६।। सोरहसै तिराणवे बीते, आसुमास सितपक्ष वितीते । तेरसी रविवार प्रवीना, ता दिन ग्रंथ समापत कीना ॥३७॥" टीकाको देखनेसे मालूम होता है कि वह अच्छी मार्मिक है, साथ ही सरल तथा सुबोध भी है। और हमारे प्रस्तुत ग्रन्थकार एक बहुत बड़े अनुभवी तथा अध्यात्म-विषयके मार्मिक विद्वान हुए हैं; जैसाकि उनके इस अध्यात्मकमलमार्तण्डसे ही स्पष्ट है, जिसमें समयसारके कितनेही कलशोंका अनुसरण उनके मर्मको अच्छी तरहसे व्यक्त करते हुए किया गया है, जिसका एक नमूना तृतीय कलशको लक्ष्यमें रखकर लिखा गया ग्रन्थका चौथा पद्य है ( देखो पृष्ठ ३) और दूसरा नमूना ऊपर दी हुई आदिअन्तके पद्योंकी तुलना है । टीकामें उस प्रकारकी विद्वत्ता एवं तर्क-शैलीकी झलक जरूर है, और इसलिये बहुत संभव है कि ये ही कवि राजमल्लजी इस टीकाके भी कर्ता हों; परन्तु टीकाकी भाषा कुछ सन्देह जरूर उत्पन्न करती है-छंदोविद्याके हिन्दी पद्योंकी भाषाके साथ उसका पूरा मेल नहीं मिलता। हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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