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________________ ६६ अध्यात्मकमलमार्तण्ड देशान्तरोंमें लाखोंका व्यापार चलता था। साँभरकी झील, और अनेक भू-पर्वतोंकी खानोंके आप अधिपति थे। सम्भवतः टकसाल भी आपके हाथमें थी। अापके भण्डारमें पचास करोड़ सोनेका टकाअशर्फियाँ. मौजूद मानी जाती थीं। दानके भी आप पूरे धनी थे। अकबर बादशाह आपका सम्मान करता था, इतना ही नहीं बल्कि आपकी आन तक मानता था, और इसीसे आप धन तथा प्रतिष्ठामें अकबरके समान ही समझे जाते थे । इन सब बातोंके आशयको लिये हुए अनेक पद्य विविध छंदोंके उदाहरणोंमें पाये जाते हैं। दो चार पद्योंको यहाँ नमूनेके तौर पर उद्धृत किया जाता है "रांक्याणिपसिद्धो लच्छिसमिद्धो भूपति भारहमल्लं, धम्मह उक्किट्ठउ दाणगरिट्ठउ दिट्ठउ राणा(?)अरिउरसल्लं । । वरवंसह बब्बर साहि अकब्बर सब्बरकियसम्माणं, हिंदू तुरिकाणा तउरिं गाणा राया माणहि आणं ॥११७(गरिट) "कोडिय पंच मुकाति लियो बहु देस निरग्गल, सांभर सर डिंडवान अवनि टकसार समग्गल । भू-भूधर-दर-उदर खनित अगणित धनसंगति, देवतनय सिरिमाल सुजस भारहमल भूपति ॥१२६॥” (वस्तु) "अयं भारमल्लो सिरीमालवंसिं, गृहे सासई लच्छि कोटी सहस्सं। सवालक्ख टंका उवइ भानुमित्ती, सिरीसाहिसम्माणिया जासु कित्ती ॥१६॥" (भुजंगप्रयात) "नागौरदेसम्हि संघाधिनाथो सिरीमाल, राक्याणिवंसिं सिरी भारमल्लो महीपाल । साकुंभरीनाथ थप्पो सिरी साहि संमाणि, राजाधिराजोवमा चक्कवट्टी महादाणि ।।१७०।। (गजानंद) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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