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अध्यात्मकमलमार्तण्ड दीहो संजुत्तवरो बिंदुजुओ यालियो (१) वि चरणंते। स गुरू वंकदुमत्तो अपणो लहु होइ शुद्ध एकपलो ।।८।।
इसमें गुरु और लघु अक्षरोंका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-'जो दीर्घ है, जिसके परभागमें संयुक्त वर्ण है, जो बिन्दु (अनुस्वार-विसर्ग) से युक्त है, . पादान्त है वह गुरु है, द्विमात्रिक है और उसका रूप वक्र (s) है। जो एकमात्रिक है वह लघु होता है और उसका रूप शुद्ध-वक्रतासे रहित सरल (1)-है।' ____ इसी तरह आगे छन्दशास्त्रके नियमों, उपनियमों तथा नियमोंके अपवादों आदिका वर्णन ६४ वें पद्य तक चला गया है, जिसमें अनेक प्रकारसे गणोंके भेद, उनका स्वरूप तथा फल, षण्मात्रिकादिका स्वरूप
और प्रस्तारादिकका कथन भी शामिल है। इस सब वर्णनमें अनेक स्थलोंपर दूसरोंके संस्कृत-प्राकृत वाक्यों को भी "अन्ये यथा" "अण्णे जहा" जैसे शब्दोंके साथ उद्धृत किया है, और कहीं बिना ऐसे शब्दोंके भी । कहीं कहीं किसी प्राचार्यके मतका स्पष्ट नामोल्लेख भी किया गया है । जैसे:
".. 'पयासिनो पिंगलायरहि ॥२०॥” "अह चउमत्तह णामं फणिराओ पइगणं भणई "२८" "एहु कहइ कुरु पिंगलणागः । '४६।" "सोलहपए 'आ जो जाणइ णाइराइभणियाई । सो छंदसत्थकुसलो सव्वकईणं च होइ महणीश्रो ॥४३॥ आद्या ज्ञेयेति मात्राणां पताका पठिता बुधैः। श्रीपूज्यपादपादाभिर्मता हि(ही)ह विवेकिभिः ।।
इससे मालूम होता है कि कविराजमल्लके सामने अनेक प्राचीन छन्दशास्त्र मौजूद थे-श्रीपूज्यपादाचार्यका गालबन वह छन्दशास्त्र भी था जिसे श्रवण वेल्गोलके शिलालेख नं० ४० में उनकी सूक्ष्मबुद्धि (रचनाचातुर्य) को ख्यापित करनेवाला लिखा है और उन्होंने उन
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