SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना दूसरे पद्यमें प्रथम जिनेन्द्र श्रीवृषभ(आदिनाथ)की वाणीको जिनदेवके समान ही मान्य बतलाया है, और फणीकी वाणीको अक्षरादिबोधसमुद्रसे पार उतरनेके लिये नौकाके समान निर्दिष्ट किया है। तीसरे पद्यमें यह निर्देश किया है कि आजकल हर्षकीर्ति नामके साधु सम्राटकी तरह राजते हैं, जो कि मानसूरि + के पट्टशिष्य और उन श्रीचंद्रकीर्तिके प्रपट्टशिष्य हैं जो कि नागपुरीय पक्ष (गच्छ ) के साक्षात् तपागच्छी साधु थे। चौथे-पाँचवें पद्योंमें बतलाया है कि-श्रीमालकुलमें देवदत्तरूपी उदयाचलके सूर्यकी तरह भूपाल भारमल्ल उदयको प्राप्त हुए और वे रॉक्याणों-राक्याणगोत्रवालों के लिये खूब दीप्तमान् हुए हैं । भारमल्लका 'भूपति (राजा)' यह विशेषण सुप्रसिद्ध है, वे वणिक संघके अधिपति हैं। छठे पद्यमें, अपनी इस रचनाके प्रसंगको व्यक्त करते हुए, कविजी लिखते हैं कि-'एक दिन मैं श्रीमालचूड़ामणि देवपुत्र (राजा भारमल्ल) के सामने बहुतसे कौतुकपूर्ण छंद पढ़ रहा था, उन्हें पढ़ते समय उनके पूरा नाम 'मानकीर्ति' सूरि है । ये भट्टारक वैशाख शुक्ला सप्तमी सं० १६३३ से पहले ही पट्टारूढ़ हो चुके थे; क्योंकि इस तिथिको इनके शिष्य मुनि अमीपालने सिन्दूरप्रकरण ग्रन्थकी एक प्रति अपने लिये लिखाई है; जैसाकि उसकी निम्न प्रशस्तिसे प्रकट है_ "संवत १६३३ वर्षे वैशाखमासे शुक्लपक्षे सप्तम्यां तिथौ शुक्रवारे लेखक-पाठकयोः शुभं भवतु । तैलाद्' 'पुस्तिका । श्रीमन्नागपुरीय-तपागच्छाधिराज-भट्टारक-श्रीमानकीतिसूरि-सूरिपुरंदराणां ... शिष्येण मुनिना अमीपालेन स्वाध्ययनाय लिखापिता इब्राहिमाबादे ।" (देखो, अमृतलाल मगनलाल शाहका 'प्रशस्तिसंग्रह' द्वि० भा० पृ० १३२। .. :: वक्खाणिए गोत विक्खात. राक्याणि एतस्स ||१६६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy