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प्रस्तावना
श्रापकी काव्यप्रवृत्ति एवं रचनाचातुर्य आदि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
छन्दोविद्याका निदर्शक यह पिङ्गलग्रन्थ राजा भारमल्लके लिये लिखा गया है, जिन्हें 'भारहमल्ल' तथा कहीं कहीं छन्दवश 'भारू' नामसे भी उल्लेखित किया गया है और जो लोकमें उस समय बहुत बड़े व्यक्तित्वको लिये हुए थे। छन्दोंके लक्षण प्रायः भारमल्लजीको सम्बोधन करके कहे गये हैं, उदाहरणोंमें उनके यशका खुला गान किया गया है और इससे राजा भारमल्लके जीवन पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है-उनकी प्रकृति, प्रवृत्ति, परिणति, विभूति, सम्पत्ति, कौटुम्बिक स्थिति और लोकसेवा अादिकी कितनी ही ऐतिहासिक बातें सामने आजाती हैं। और इस तरह राजा भारमल्लका कुछ खण्ड इतिहास मिल जाता है, जो कविवर राजमल्ल जैसे विद्वान्की लेखनीसे लिखा होनेके कारण कोरा कवित्व न होकर कुछ महत्त्व रखता है। इससे विद्वानोंको दूसरे साधनों परसे राजा भारमल्लके इतिहासकी और और बातोंको खोजने तथा इस ग्रन्थपरसे उपलब्ध हुई बातों पर विशेष प्रकाश डालनेके लिये प्रोत्साहन मिलेगा
और इस तरह राजा भारमल्लका एक अच्छा इतिहास तय्यार होसकेगा। - कविवरने, अपनी इस रचनाका सम्बन्ध व्यक्त करते हुए, मंगलाचरणादिकके रूपमें जो सात संस्कृत पद्य शुरूमें दिये हैं वे इस प्रकार हैं:
केवलकिरण दिनेशं प्रथमजिनेश दिवानिशं वंदे। यज्योतिषि जगदेतद्व्योम्नि नक्षत्रमेकमिव भाति ।।१।। जिन इव मान्या वाणी जिनवरवृषभस्य या पुनः फणिनः । वर्णादिबोधवारिधि-तराय पोतायते तरा जगतः ।।२।।
आसीन्नागपुरीयपक्षनिरतः साक्षात्तपागच्छमान । सूरिः श्रीप्रभुचन्द्रकीर्तिरवनी मूर्द्धाभिषिक्तो गणी। तत्पट्टे त्विह मानसूरिरभवत्तस्यापि पट्टेऽधुना संसम्राडिव राजते सुरगुरुः श्रीहर्ख(प)कीर्तिमहान ।।३।।
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