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अध्यात्म-कमलल-मार्तण्ड
येनाsस पातिसाहिः प्रतपदकबर प्रख्यविख्यातकीर्तिजयाद्भोक्ताथ नाथः प्रभुरिति नगरस्यास्य वैराटनाम्नः ॥६२॥
इनमें कबरको सार्वभौम सदृश - चक्रवर्ती सम्राट् के समान - तथा शाहशिरोमणि बतलाते हुए लिखा है - 'कि उसके बढ़ते हुए प्रतापानलकी ज्वालाओं से शत्रुसमूह सब श्रोरसे भस्म होगया है और जो राजा अवशेष रहे हैं उन सबकी मालाओं तथा रत्नजडित मुकुटोंसे उसके चरण सेवित हैं । उसकी कीर्ति खण्ड है, समुद्रफेनके समान धवल है, श्राकाशके समान विशाल है और उसके द्वारा इस (वैराट) नगर में ब्रह्माण्डकाण्ड ( विश्वका बहुत बड़ा समूह ) खिंच श्राया है।' साथ ही, उस विख्यात - कीर्ति प्रतापी करको वैराट नगरका भोक्ता, नाथ और प्रभु बतलाते हुए उसे जयवन्त रहनेका आशीर्वाद दिया गया है ।
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जम्बूस्वामिचरितमें तो मंगलाचरणके अनन्तर ही पूवें पद्यसे ३१ वें पद्य तक अकबरका स्तवन किया गया है, जिसमें उसकी जाति, वंश और पूर्वजों के वर्णनके साथ-साथ उसकी बाल्यावस्था, युवावस्था तथा चित्तौड़ (चित्रकूट) विजय और सूरतके दुर्जयदुर्गसहित गुजरात विजयका संक्षिप्त वर्णन भी गया है । जज़िया करको छोड़ने और शराबबन्दीकी बातका भी इसी में समावेश है । इस सब वर्णनमें अकबरको अद्भुतोदय, दयान्वित, श्रीपदशोभित, वरमति, साम्राज्यराजद्वपु, तेजःपुञ्जमय, शशीव दीस और विदांवर जैसे विशेषणोंके साथ उल्लेखित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि उद्धृत वीरकर्म करते हुए भी उसमें दयालुता स्वाभाविक थी, क्रमसे अथवा युगपत् नवों रसोंके सेवनकी अचिन्त्य शक्ति थी, उसने बन्धुबुद्धि प्रजाका उसी तरह पालन किया है जिस तरह कि इन्द्र स्वर्गके देवोंका पालन करता है । उसका 'कर' जगतके लिये दुष्कर नहीं था। किसी भी कारणको पाकर उसे मद नहीं हुआ और 'इसका वध करो' यह बचन तो स्वभावसे ही उसके मुँहसे कहीं निकला नहीं, और इसलिये वह इस
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