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प्रस्तावना
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शुभे ज्येष्ठे महामासे शुक्ल पक्षे महोदये । द्वादश्यां बुधवारे स्याद् घटीनां च नवोपरि ॥१२०॥ परमाश्चर्यपदं पूतं स्थानं तीर्थसमप्रभम् । शुभ्रं रुक्मगिरेः साक्षात्कूटं लक्षमिवोच्छ्रितं ॥१२॥ पूजया च यथाशक्ति सूरिमंत्रैः प्रतिष्ठितम् ।
चतुर्विधमहासंघं समाहूयाऽत्र धीमता ॥१२२।। ये सब स्तूप अाज मथुरामें नहीं हैं, कालके प्रबल अाघात तथा विरोधियोंके तीव्र मत-द्वेषने उन्हें धराशायी कर दिया है, उनके भग्नावशेष ही आज कुछ टीलोंके रूपमें चीन्हें जा सकते हैं । आम तौरपर जैनियोंको इस बातका पता भी नहीं कि मथुरामें कभी उनके इतने स्तूप रहे हैं । बहुतसे स्तूपांके ध्वंसावशेष तो सदृशताके कारण गलतीसे बौद्धोंके समझ लिये गये हैं ओर तदनुसार जैनी भी वैसा हो मानने लगे हैं । परंतु ऊपर के उल्लेख-वाक्योंसे प्रकट है कि मथुरामें जैन स्तूपोंकी एक बहुत बड़ी संख्या रही है । और उसका कारण भी है । 'विद्युच्चर' नामका एक बहुत बड़ा डाक था, जो राजपुत्र होनेपर भी किसी दुरभिनिवेशके वश चोरकर्ममें प्रवृत्त होकर चोरी तथा डकैती किया करता था, और जिसे आम जैनी 'विद्युत चोर' के नामसे पहचानते हैं। उसके पाँचसौ साथी थे। जम्बूस्वामीके व्यक्तित्वसे प्रभावित होकर, उनकी असाधारण निस्पृहताविरक्तता-अलिप्तताको देखकर और उनके सदुपदेशको पाकर उसकी आँखें खुली, हृदय बदल गया, अपनी पिछली प्रवृत्ति पर उसे भारी खेद हुआ और इसलिये वह भी स्वामीके साथ जिनदीक्षा लेकर जैनमुनि बन गया। यह सब देखकर उसके 'प्रभव' आदि साथी भी, जो सदा उसके साथ एकजान एकप्राण होकर रहते थे, विरक्त हो गये और उन्होंने भी जैनमुनि-दीक्षा ले ली। इस तरह यह ५०१ मुनियोंका संघ प्रायः एक साथ ही रहता तथा विचरता था। एक बार जब यह संघ विहार करता हुआ जा रहा था तो इसे मथुराके बाहर एक महोद्यानमें सूर्यास्त होगया और इसलिये मुनिचर्या
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