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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
यशस्वी, धर्मानुरागी, धर्मतत्पर और सुधी घोषित किया है। तदनन्तर वृषभादि-वर्धमान-पर्यन्त दो दो तीर्थंकरोंकी वन्दनादिरूप प्रत्येक सर्गमें अलग अलग मगलाचरण किया गया है। लाटीसंहिताके द्वितीयादि स!में उसका निर्माण करानेवाले फामनको आशीर्वाद तो दिया गया है परन्तु सर्ग-क्रमसे अलग अलग मंगलाचरणकी बातको छोड़ दिया है, अध्यात्पकमलमार्तण्डादि दूसरे ग्रन्थोंमें भी दोबारा मंगलाचरण नहीं किया गया है और यह बात रचना-सम्बन्धमें जम्बूस्वामिचरितके बाद कविके कुछ विचार-परिवर्तनको सूचित करती है । जान पड़ता है उन्होंने दोबारा तिबारा श्रादिरूपसे पुनः मंगलाचरणको फिर आवश्यक नहीं समझा और ग्रन्थका एक ही प्रारम्भिक मंगलाचरण करना उन्हें उचित जान पड़ा है। इसीसे लाटीसंहिता और पंचाध्यायीमें महावीरके अनन्तर शेष तीर्थंकरोंका भी स्मरण समुच्चयरूपमें कर लिया गया है। मथुरामें सैकड़ों जैनस्तूपोंके अस्तित्वका पता__ कवि राजमल्लके इस 'जम्बूस्वामिचरित' से-उसके 'कथामुखवर्णन' नामक प्रथम सर्गसे-एक खास बात का पता चलता है, और वह यह कि उस वक्त-अकबर बादशाहके समयमें-मथुरा नगरीके पासकी बहिर्भूमि पर ५०० से अधिक जैन स्तूप थे। मध्यमें अन्त्य केवली जम्बूस्वामीका स्तूप (निःसही-स्थान ) और उसके चरणों में ही विद्युच्चर मुनिका स्तूप था। फिर उनके श्रास-पास कहीं पाँच, कहीं श्राठ, कहीं दस और कहीं बीस इत्यादि रूपसे दूसरे मुनियोंके स्तूप बने थे । ये स्तूप बहुत पुराने होने की वजहसे जीर्ण-शीर्ण होगये थे । साहु टोडरजी जब यात्राको निकले और मथुरा पहुँचकर उन्होंने इन स्तूपोंकी इस हालतको देखा तो उनके हृदयमें उन्हें फिरसे नये करा देनेका धार्मिक भाव उत्पन्न हुआ। चुनाँचे आपने बड़ी उदारताके साथ बहुत द्रव्य खर्च करके उनका नूतन संस्कार कराया। स्तूपोंके इस नवीन संस्करणमें ५०१ स्तूपोंका तो एक समूह और १३ का
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