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________________ ४२ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड धन्यास्ते परमात्मतत्त्वममलं प्रत्यक्षमत्यक्षतः साक्षात्स्वानुभवैकगम्य महसां विन्दन्ति ये साधवः । सान्द्रं सज्जतया न मज्जनतया प्रक्षालितान्तर्मलास्तत्रानन्त सुखामृताम्बुसरसीहंसाश्च तेभ्यो नमः ॥ १४८ ॥ - प्रथम सर्ग इनमें 'जम्बूस्वामि-कथा के बहाने मैं अपनी श्रात्माको पवित्र करता हूँ' ऐसा कहकर बतलाया है कि - 'मैं वह (परं ब्रह्मरूप ) ग्रात्मा हूँ, विशुद्धात्मा हूँ, चिद्रूप हूँ, रूपवर्जित हूँ, इससे आगे और जो संज्ञा ('राजमल्ल' नाम) है वह मेरी नहीं है । जो जानता है वह नाम नहीं है और जो नाम है वह ज्ञानवान् नहीं है, दोनोंके इस भेदके कारण नाम (संज्ञा) को कैसे कर्ता ठहराया जाय ? मैं तो द्रव्यनिश्चयसे-द्रव्यार्थिक नयके निश्चयानुसारअसंख्यातप्रदेशिरूपसे एक हूँ, नामके मात्र पर्यायपना और अनन्तत्वपना होनेसे मैं अपनेको क्या कहूँ ? – किस नामसे नामाङ्कित करू ? वे साधु धन्य हैं जो स्वानुभवगम्य निर्मल गाढ परमात्मतत्वको साक्षात् श्रतीन्द्रियरूपसे प्रत्यक्ष जानते हैं और जिन्होंने मज्जनता से नहीं किन्तु सज्जता से अन्तर्मोंको धो डाला है और उस परमात्मतत्वरूप सरोवर के हंस बने हुए हैं जो अनन्त सुखस्वरूप अमृतजलका आधार है उन साधुत्रों को नमस्कार ।' इस प्रकारका भाव ग्रन्थकारने लाटीसंहिताके ' कथामुखवर्णन' नामके पहले सर्गमें अथवा अन्यत्र कहीं भी व्यक्त नहीं किया, और इसलिये यह अध्यात्म-ग्रन्थोंके कुछ ही पूर्ववर्ती ताजा अध्ययन-जन्य संस्कारोंका परिणाम जान ग्ड़ता है। इस ग्रन्थमें काव्य-रचना करते समय दुर्जनों की भीतिका कुछ उल्लेख जरूर किया है और फिर साहसके साथ कह दिया है यदि संति गुणा वाण्यामत्रौदार्यादयः क्रमात् । साधवः साधु मन्यन्ते का भीतिः शठविद्विषाम् || १४१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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