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प्रस्तावना
उन्होंने अपनेको सबसे छोटा (लघु) बतलाते हुए स्पष्ट कहा है कि वह दर्जे में ही नहीं किन्तु उनमें भी छोटा है :
सर्वेभ्योऽपिलघीयांश्च केवलं न क्रमादिह ।
वयसोऽपि लघुबुद्धो गुणानादिभिस्तथा ॥१-१३४॥ उम्रका यह छोटापन कविवर के ज्ञानादिगुणोंको देखते हुए ३५-३६ वर्षसे कमका मालूम नहीं होता, और इसलिये सं० १६४१में लाटीसंहिता. की रचनाके समय आपकी अवस्था ४५ वर्षके लगभग रही होगी। अध्यात्मकमलमार्तण्ड और पंचाध्यायी जैसे ग्रंथोंके लिये, जो आपके पिछले तथा अन्तिम जीवनकी कृतियाँ जान पड़ती हैं, यदि पाँच वर्षका समय और मान लिया जाय तो आपकी यह लोकयात्रा लगभग ५० वर्षकी अवस्था में ही समाप्त हुई जान पड़ती है। __इसके सिवाय, ग्रन्थपरसे यह भी जान पड़ता है कि कविवर इस ग्रन्थकी रचनासे पहले समयसारादि अध्यात्मग्रन्थोंके अच्छे अभ्यासी होगये थे, उन्हें उनमें रस श्रारहा था और इसीसे उस समयके ताज़ा विचारों एवं संस्कारोंकी छाया इस ग्रन्थपर पड़ी हुई जान पड़ती है। जैसा कि नीचेके कुछ वाक्योंसे प्रकट है :
मृदूक्त्या कथितं किश्चिद्यन्मयाप्यल्पमेधसा। स्वानुभूत्यादि तत्सर्व परीक्ष्योद्धर्तुमर्हथ ॥१४३॥ इत्याराधितसाधूक्तिहदि पंचगुरून नयन् । जम्बूस्वामि-कथा-व्याजादात्मानं तु पुनाम्यहम् ।।१४४॥ सोऽहमात्मा विशुद्धात्मा चिद्रपो रूपवर्जितः । अतः परं यका संज्ञा सा मदीया न सर्वतः ।।१४।। यज्जानाति न तन्नाम यन्नामापि न बोधवत् । इति भेदात्तयो म कथं कर्तृ नियुज्यते ॥१५६।। अथाऽसंख्यातदेशित्वाच्चैकोऽहं द्रव्यनिश्चयात् । नाम्ना पर्यायमात्रत्वादनन्तत्वेऽपि किं वदे ॥१४॥
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