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प्रस्तावना
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नवीन ग्रन्थके रचनेकी प्रार्थना की गई है उसके अनुरूप, नाममें भी नवीनता श्राई है । प्रन्थनिर्माणकी उक्त प्रार्थनापर से ग्रन्थकी मौलिकता, सारता और उसकी प्रकृतिका भी कितना ही बोध हो जाता है।
जम्बूस्वामि-चरित
जसे कोई १६ - १७ वर्ष पहले मुझे इस ग्रन्थका सर्वप्रथम दर्शन देहलीकी एक प्रतिपरसे हुआ था, जिसके मैंने उसी समय विस्तृत नोट्स ले लिये थे और फिर अनेकान्तके प्रथम वर्षकी ३री किरण ( माघ सं० १६८६ ) में, 'कविराजमल्लका एक और प्रन्थ' इस शीर्षकके साथ, इसका परिचय प्रकाशित किया था। उसी परिचयपरसे ग्रन्थकी सूचनाको पाकर और उसी एक प्रतिके आधारपर सं० १६६३ में 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' के द्वारा इसका उद्धारकार्य हुआ है । यह प्राचीन ग्रन्थ- प्रति देहलीसेठके कूंचेके जैनमंदिरमें मौजूद हैं, बहुत कुछ जीर्ण-शीर्ण है -- कितनी ही जगह काग़ज़ की टुक्कियाँ लगाकर उसकी रक्षा की गई है, उसी वक्त के करीबकी लिखी हुई है जब कि इस ग्रन्थकी रचना हुई थी और उन्हीं साधु ( साहु ) टोडरकी लिखाई हुई है जिन्होंने कविसे इसकी रचना कराई थी । ग्रन्थकी रचनाका समय, अन्तको गद्य प्रशस्तिमें विक्रम गताङ्क सं० १६३२ चैत्र सुदि श्रष्ठमी दिया है अर्थात् यह प्रकट किया है कि सं० १६३३ के वें दिन यह ग्रन्थ समाप्त किया गया है । यथाः
"अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्द संवत् १६३२ वर्षे चैत्रसुदिप वासरे पुनर्वसु नक्षत्रे श्री अर्गलपुरदुर्गे श्रीपातिसाहि जला (ल) दीन अकबर साहिप्रवर्तमाने श्रीमत्काष्ठासंघे माथुर गच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भट्टारक श्री मलय कीर्तिदेवाः । तत्पट्टे भट्टारको गुणभद्रसूरिदेवाः । तत्पट्टे भट्टारकश्रीभानुकीतिं देवाः । पट्टे भट्टारक श्रीकुमार सेननामधेयास्तदाम्नायेऽप्रोतकान्वये गर्ग
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