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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड उसका ऐसा ही स्वरूप है, जैसा कि साहित्यदर्पणकी विवृत्तिमें उद्धृत 'लाटी' के निम्न लक्षणसे प्रकट है
मृदुपद-समाससुभगा युक्तैर्वन चातिभूयिष्टा । उचित-विशेषणपूरित-वस्तुन्यासा भवेल्लाटी ।
ग्रन्थकी रचना-पद्धति इस लक्षणके बिल्कुल अनुरूप है। इसके सिवाय, ग्रन्थकारने ग्रन्थरचनेकी प्रार्थनाका जो न्यास ग्रन्थमें किया है वह इस प्रकार है
सत्यं धर्मरसायनो यदि तदा मां शिक्षयोपक्रमात् सारोद्धारमिवाऽप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षरं सारवत्।
आर्ष चापि मृदूक्तिभिः स्फुटमनुच्छिष्टं नवीनं महनिर्माणं परिधेहि संघनृपतिर्भूयोऽप्यवादीदिति ॥३०॥
इसमें ग्रन्थ किस प्रकारका होना चाहिये उसे बतलाते हुए कहा गया है कि 'वह सारोद्धारकी तरह स्वल्पाक्षर, सारवान् , पार्ष, स्फुट (स्पष्ट), अनुछिष्ट, नवीन तथा महत्वपूर्ण होना चाहिये और यह सब कार्य मृदु उक्तियोंके द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिये-कठिन तथा दुरूह पदसमासोंके द्वारा नहीं।' अतः यहाँ 'मृदूक्तिभिः' जैसे पदोंके द्वारा, जो लाटी रीतिके संद्योतक हैं ('लाटी तु मृदुभिः पदैः'), इस 'लाटी' रीतिके रूपमें ग्रन्थरचनाकी सूचना की गई है और इस रीतिके अनुरूप ही ग्रन्थका नामकरण किया गया जान पड़ता है-जब कि पंचाध्यायीका नामकरण उसके अध्यायोंकी संख्याके अनुरूप और शेष तीन ग्रन्थोंका नामकरण उनके विषयके अनुरूप किया गया है । इससे, जिस अनुच्छिष्ट तथा रन्तरे स्थिता' इस लक्षणके अनुसार वैदर्भी-मिश्रित पाञ्चालीको लाटी कहते हैं और इस लिये उसमें मधुरता, मृदूक्तियों तथा सुकुमार पदोंकी बहुलता होती है । (देखो, साहित्यदर्पण, सवृत्ति, निर्णयसा० पृ० ४६६-६६)
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