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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
प्रार्थनापर और मुख्यतया उसके लिये हुई वैसे पंचाध्यायीकी रचना किसी व्यक्तिविशेषकी प्रार्थना पर अथवा किसी व्यक्तिविशेषको लक्ष्यमें रखकर उसके निमित्त नहीं हुई। उसे ग्रन्थकारमहोदयने उस समयकी
आवश्यकताओंको महसूस (अनुभूत) करके और अपने अनुभवोंसे सर्वसाधारणको लाभान्वित करनेकी शुभभावनाको लेकर स्वयं अपनी स्वतन्त्र रुचिसे लिखा है और उसमें प्रधान कारण उनकी सर्वोपकारिणी बुद्धि है, जैसा कि मंगलाचरण और ग्रन्थप्रतिज्ञाके अनन्तर ग्रन्थ-निमित्तको सूचित करनेवाले स्वयं कविवरके निम्न दो पद्योंसे प्रकट है :"अत्रान्तरङ्गहेतुर्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः।। हेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः ॥५॥ सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतुंकामो वृषं हि सुगमोक्त्या । विज्ञप्तौ तस्य कृते तत्राऽयमुपक्रमः श्रेयान् ॥६॥
पहले पद्यमें ग्रन्थके हेतु ( निमित्त )का निर्देश करके दूसरे पद्यमें यह बतलाया गया है कि सारा विश्व धर्मको सुगम उक्तियों द्वारा सुनना चाहता है, उसीके लिये यह सब ग्रन्थरचनाका प्रयत्न है। इसमें सन्देह नहीं कि कविवर महोदय अपने इस प्रयत्नमें बहुत कुछ सफल हुए हैं
और उन्होंने यथासाध्य बड़ी ही सुगम उक्तियों-द्वारा इस ग्रन्थमें धर्मको समझनेके साधनोंको जुटाया है। ग्रन्थ-निर्माणका स्थान-सम्बन्धादिक
कवि राजमल्लने लाटीसंहिताका निर्माण 'वैराट' नगरके जिनालयमें बैठकर किया है । यह वैराटनगर वही जान पड़ता है जिसे 'बैराट' भी कहते हैं और जो जयपुरसे करीब ४० मीलके फासले पर है। किसी समय यह विराट अथवा मत्स्यदेशकी राजधानी थी और यहीं पर पाण्डवोंका गुप्तवेशमें रहना कहा जाता है । 'भीमकी दूंगरी' आदि कुछ स्थानोंको
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