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प्रस्तावना
पुराणोंमेंसे वे 'आदिपुराण'को भी पूरा नहीं कर सके !-प्रस्तावित ग्रन्थका २४वाँ भाग भी नही लिख सके !! जिन्होंने आदिपुराणको देखा है वे समझ सकते हैं कि प्राचार्य महोदयने अपनी प्रतिभा और प्राञ्जल लेखनीसे कितने कितने विषयोंको किस ढंगसे उसमें समाविष्ट किया है। बादको उनके शिष्य गुणभद्राचार्यने आदिपुराणको पूरा जरूर किया है और शेष २३ पुराण भी लिखे हैं, परन्तु वे सब मिलकर भी अधूरे श्रादिपुराणके बराबर नहीं, और फिर उनमें वह बात कहाँ जो आदिपुराणमें पाई जाती है। वे तो प्रायः ग्रन्थका अधूरापन दूर करने और सामान्य विषयोंकी साधारण जानकारी करानेके लिये लिखे गये हैं। सच पूछिये तो महापुराणके मन्सूबे श्रीजिनसेनके साथ ही गये ! अक्सर कागज पत्रोंमें वे बातें नोट की हुई रहती ही नहीं जो हृदयमें स्थित होती हैं । इसीसे गुणभद्राचार्य महापुराणको उस रूपमें पूरा न कर सके जिस रूपमें कि भगवज्जिनसेन उसे पूरा करना चाहते थे। और इसलिये एक अनुभवी एवं प्रतिभाशाली साहित्य-कलाकारके एकाएक उठ जानेसे समाजको बहुत बड़ी हानि पहुँचती हैं-उसका एक प्रकारसे बड़ा खजाना ही उससे छिन जाता है। यही बात कवि राजमल्लजीके अचानक निधनसे हुई ! अस्तु। इसी प्रकारका एक आयोजन कविवर राजमल्लजीके बाद भी किया गया है और वह विद्वद्वर पं० टोडरमलजीका हिन्दी "मोक्षमार्गप्रकाश" ग्रन्थ है। इसे भी ग्रन्थराजका रूप दिया जानेको था, परन्तु पंडित जी अकालमें काल-कवलित होगये और इसे पूरा नहीं कर सके ! इस तरह ये समाजके दुर्भाग्यके तीन खास नमूने हैं । देखिये, समाजका यह दुर्भाग्य कब समाप्त होता है और कब इन तीनों प्रकारके प्रस्तावित ग्रन्थराजों से किसी भी एक उत्तम ग्रन्थराजकी साङ्गोपाङ्ग रचनाका योग भिड़ता है और समाज को उससे लाभान्वित होनेका सुनहरी अवसर मिलता है। ___यहाँपर मैं इतना और भी बतलादेना चाहता हूँ कि लाटीसंहिताकी रचना जिस प्रकार साहु फामन नामके एक धनिक एवं धर्मात्मा सजनकी
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