________________
अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड उक्त दिङ्मावतोऽप्यत्र प्रसंगाद्वा गृहिवाम् । वक्ष्ये चोपासकाध्यायात् सावकाशात् सविस्तरम् ॥७४२।। उक्तं धर्मस्वरूपोऽयं प्रसंगात्संगतोंशतः। कविलब्धावकाशस्तं विस्तराद्वा करिष्यति ॥७७।।
इनमेंसे प्रथम पद्यमें 'गुरुलक्षण', दूसरेमें 'गृहिवत' और तीसरेमें 'धर्मस्वरूप के विशेष कथनकी प्रतिज्ञा की गई है, जिसकी पूर्ति ग्रन्थके उपलब्ध भागमें कहीं भी देखनेमें नहीं आती । और इसलिये मालूम होता है कि ग्रन्थकार महोदय सचमुच ही, आद्य पद्यकी सूचनानुसार, इसे 'ग्रन्थराज' ही बनाना चाहते थे और इसमें जैन आचार, विचार एवं सिद्धान्तसम्बन्धी प्रायः सभी विषयोंका पूर्वापर-पर्यालोचन-पूर्वक विस्तारके साथ समावेश कर देना चाहते थे। काश, यह ग्रन्थ कहीं पूरा होगया होता तो सिद्धान्त-विषय और जैन-आचार-विचारको समझनेके लिये अधिकांश ग्रन्थोंको देखनेकी जरूरत ही न रहती-यह अकेला ही पचासों ग्रन्थोंकी जरूरतको पूरा कर देता। निःसंदेह, ऐसे ग्रन्थरत्नका पूरा न हो सकना समाजका बड़ा ही दुर्भाग्य है।
कविवरसे बहुत समय पहले विक्रमकी हवीं शताब्दीमें भगवजिनसेनाचार्यने भी 'महापुराण' नामसे एक इससे भी बहुत बड़े ग्रन्थराजका आयोजन किया था और उसमें वे सारी ही जिनवाणीकाउसके चारों ही अनुयोगोंकी मूल बातोंका-संक्षेप तथा विस्तारके साथ समावेश कर देना चाहते थे और उसे इस रूपमें प्रस्तुत कर देनेकी इच्छा रखते थे जिसकी बावत यह कहा जासके कि 'यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्' अर्थात् जो इसमें नहीं वह कहीं भी नहीं । परन्तु महापुराणके अन्तर्गत २४
* कविवर पूर्वापरके पर्यालोचनमें दक्ष थे, यह बात स्वयं उनके निम्न वाक्यसे भी जानी जाती है
"कविः पूर्वापरायत्तपर्यालोचविचक्षणः ॥उत्त० १६०।।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org