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________________ प्रस्तावना २५ कर वह पंचाध्यायी में रक्खा हुआ जान पड़ता है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उक्त पद्य उस वाक्य खण्ड में समुचित परिवर्तनका होना या तो छूट गया और या ग्रन्थके भी निर्माणाधीन होनेके कारण उस वक्त तक उसकी ज़रूरत ही नहीं समझी गई । और इसलिए पंचाध्यायीका प्रारम्भ यदि पहले हुआ हो तो यह कहना चाहिए कि उसकी रचना प्रायः उसी हद तक हो पाई थी जहाँसे श्रागे लाटीसंहिता में पाये जानेवाले समान पद्योंका उसमें प्रारंभ होता है । अन्यथा, लाटीसंहिता के कथन सम्बन्धादिको देखते हुए, यह मानना ही ज्यादा अच्छा और अधिक संभावित जान पड़ता है कि पंचाध्यायीका लिखा जाना लाटीसंहिताके बाद प्रारंभ हुआ है । परन्तु पंचाध्यायीका प्रारंभ पहले हुआ हो या पीछे, इसमें सन्देह नहीं कि वह लाटीसंहिता के बाद प्रकाश में आई है और उस वक्त जनता के सामने रक्खी गई है जब कि कविमहोदयकी इहलोकयात्रा प्रायः समाप्त हो चुकी थी । यही वजह है कि उसमें किसी सन्धि, अध्याय, प्रकरणादिके या ग्रन्थकर्त्ता के नामादिककी योजना नहीं हो सकी, और वह निर्माणाधीन स्थिति में ही जनताको उपलब्ध हुई है। मासूम नहीं ग्रन्थकर्ता महोदय इसमें और किन किन विषयोंका किस हद तक समावेश करना चाहते थे और उन्होंने अपने इस ग्रन्थराजके पांच महाविभागों - अध्यायों— के क्या क्या नाम सोचे थे। हाँ, ग्रन्थमें विशेष कथनकी बड़ी बड़ी प्रतिज्ञाओं को लिए हुए कुछ सूचना - वाक्य ज़रूर पाये जाते हैं, जिनके द्वारा इस प्रकारकी सूचना की गई है कि यह कथन तो यहाँ प्रसंगवश दिग्दर्शनमात्रके रूपमें अथवा शिरूपमें किया गया है, इस विषयका विस्तृत विशेष कथन यथावकाश ( यथा स्थल) आगे किया जायगा । ऐसे कुछ वाक्य इस प्रकार हैं: उक्तं दिङ्मात्रमत्रापि प्रसंगाद्गुरुलक्षणम् । शेषं विशेषतो बदये तत्स्वरूपं जिनागमात् ॥७१४|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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