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________________ प्रस्तावना ग्रन्थ और उसकी उपयोगिता प्रस्तुत ग्रन्थ 'अध्यात्मकमल-मार्तण्ड' का विषय उसके नामसे ही प्रकट है-यह अध्यात्मरूप कमलोंको विकसित करनेवाला सूर्य है। इसमें अात्माके पूर्ण विकासको सिद्ध करनेके लिये मोक्ष तथा मोक्षमार्गका निरूपण करते हुए, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयभूत जीवादि समतत्त्वों और उनके अन्तर्गत भेद-प्रभेदों तथा द्रव्य-गुण-पर्यायोंके स्वरूप पर अच्छा प्रकाश डाला गया है; और इस तरह अध्यात्म-विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रायः सभी प्रमुख प्रमेयोंको थोड़ेमें ही स्पष्ट करनेका सफल प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थकी लेखन-शैली बड़ी मार्मिक है, भाषा भी प्राञ्जल, मंजी हुई, जंची-तुली सूत्ररूपिणी तथा प्रासादादि-गुण-विशिष्ट है। और यह सब ग्रन्थकारकी सुअभ्यत अनुभूत लेखनीका परिणान है। ग्रन्थमें चार परिच्छेद और उनमें कुल १०१ पद्य हैं । इतनेसे स्वल्पक्षेत्रमें कितना अधिक प्रमेय ( ज्ञेय-विषय ) ऊहापोह के साथ भरा गया है और समयसारादि कितने महान् ग्रन्थोंका सार खींचकर रखा गया है यह ग्रन्थके अध्ययनसे ही जाना जा सकता है अथवा उस विषयानुक्रमणिका परसे भी पाठक कुछ अनुभव कर सकते हैं जो ग्रन्थके शुरूमें लगाई गई है, और इससे उन्हें ग्रन्थकारकी अगाध विद्वत्ता के साथ उसकी रचना-चातुरी (निर्माण कौशल्य) का भी कितना ही पता चल सकता है। ऐसी हालतमं यदि यह कहा जाय कि यहाँ अध्यात्म-समुद्रको कृज़में बन्द किया गया अथवा सागरको गागरमें भरा गया है तो शायद अत्युक्ति नहीं होगी। ग्रन्थके अन्तमें इस शास्त्रके सम्यक अध्ययनका फल यह बतलाया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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