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________________ प्रस्तावना २३ तत्राप्यऽश्विनीमासे सितपक्षे शुभान्विते। दशम्यां दाशरथेः(थेश्च)शोभने रविवासरे ॥३॥ पंचाध्यायी भी इसी समयके करीबकी-विक्रमकी १७वीं शताब्दीके मध्यकालकी-लिखी हुई है। उसका प्रारम्भ या तो लाटीसंहितासे कुछ पहले होगया था और उसे बीचमें रोककर लाटीसंहिता लिखी गई है और या लाटीसंहिताको लिखनेके बाद ही, सत्सहायको पाकर, कविके हृदयमें उसके रचनेका भाव उत्पन्न हुआ है अर्थात्, यह विचार पैदा हुआ है कि उसे अब इसी टाइप अथवा शैलीका एक ऐसा ग्रन्थराज भी लिखना चाहिए जिसमें यथाशक्ति और यथावश्यकता जैनधर्मका प्रायः सारा सार खींचकर रख दिया जाय। उसीके परिणामस्वरूप पंचाध्यायीका प्रारम्भ हुअा जान पड़ता है। और उसे 'ग्रन्थराज' यह उपनाम भी ग्रन्थके आदिम मंगलाचरणमें ही दे दिया गया है। परन्तु पंचाध्यायीका प्रारम्भ 'पहले माननेकी हालतमें यह मानना कुछ आपत्तिजनक जरूर मालूम होता है कि, उसमें उन सभी पद्योंकी रचना भी पहले ही से हो चुकी थी जो लाटीसंहितामें भी समानरूपसे पाये जाते हैं और इसलिये उन्हें पंचाध्यायी परसे उठाकर लाटीसंहितामें रक्खा गया है। क्योंकि इसके विरुद्ध पंचाध्यायीमें एक पद्य निम्न प्रकारसे उपलब्ध होता है: ननु तह(सुदर्शनस्यैतल्लक्षणं स्यादशेषतः। किमथास्त्यपरं किञ्चिल्लक्षणं तद्वदाद्य नः ॥४७७॥ यह पद्य लाटीसंहितामें भी चतुर्थ सर्गके शुरूमें कोष्ठकोल्लेखित पाठभेदके साथ पाया जाता है । इसमें 'तद्वदाद्य नः' इस वाक्यखण्डके द्वारा यह पूछा गया है कि, सम्यग्दर्शनका यदि कोई और भी लक्षण है तो 'उसे अाज हमें बताइये । 'वद अद्य नः' इन शब्दोंका पंचाध्यायीके साथ कोई सम्बन्ध स्थिर नहीं होता-यही मालूम नहीं होता कि यहाँ 'न:' (हमें) शब्दका वाच्य कौनसा व्यक्ति-विशेष है; क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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