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प्रस्तावना
२१
लाटीसंहितामें भी ग्रन्थकार महोदय अपनेको 'कवि' नामसे नामाङ्कित करते और 'कवि' लिखते हैं । जैसा कि ऊपर उद्धृत किये हुए पद्य नं० ६, नं० ७७५ (यह पद्य लाटीसंहिताके चतुर्थसर्गमें नं० २७०-मुद्रित २७६पर दर्ज है ) और नीचे लिखे पद्यों परसे प्रकट है
तत्र स्थितः किल करोति कविः कवित्वम् । तद्वर्धतां मयि गुणं जिनशासनं च ॥१-८६(मु०८७)। प्रोक्तं सूत्रानुसारेण यथाणुव्रतपंचकं । गुणव्रतत्रयं वक्तुमुत्सहेदधुना कविः ॥६-११७ (मु० १०६)
इसी तरह और भी कितने ही स्थानोंपर श्रापका 'कवि' नामसे उल्लेख पाया जाता है, कहीं कहीं असली नामके साथ कवि-विशेषण भी जुड़ा हुआ मिलता है, यथा-'सानन्दमास्ते कविराजमल्लः'(५६)। और इन सब उल्लेखोंसे यह जाना जाता है कि लाटीसंहिताके कर्ताकी कविरूपसे बहुत प्रसिद्धि थी, 'कवि' उनका उपनाम अथवा पदविशेष था
और वे अकेले (एकमात्र) उसीके उल्लेख-द्वारा भी अपना नामोल्लेख किया करते थे-'जम्बूस्वामिचरित' और छन्दोविद्यामें भी 'कवि' नामसे उल्लेख है। इसीसे पंचाध्यायीमें जो अभी पूरी नहीं हो पाई थी, अकेले 'कवि' नामसे ही आपका नामोल्लेख मिलता है। नामकी इस समानतासे भी दोनों ग्रन्थ एक कविकी दो कृतियाँ मालूम होते हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि कवि राजमल्ल एक बहुत बड़े विद्वान् और सत्कवि होगये हैं। कविके लिए जो यह कहा गया है कि 'वह नये नये सन्दर्भ-नई नई मौलिक रचनाएं-तय्यार करनेमें समर्थ होना चाहिये। वह बात उनमें ज़रूर थी और ये दोनों ग्रन्थ उसके ज्वलन्त उदाहरण जान पड़ते हैं। इन ग्रन्थोंकी लेखन-प्रणाली और कथन-शैली अपने
में "कविनूतनसंदर्भः।"
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