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अध्यात्म कमल-मार्तण्ड जयन्ति जैनाः कवयश्च तगिरः प्रवर्तिता यैवषमागदेशना। " विनिर्जितजाडयमिहासुधारिणां तमस्तमोरेरिव रश्मिभिर्महत्।। इतीव सन्मङ्गलसत्क्रियां दधन्नधीयमानोन्वयसात्परंपराम् । उपज्ञलाटीमिति संहितां कविश्चिकीर्षति श्रावकसव्रतस्थितिम् ।।
इन मङ्गलपद्योंकी पंचाध्यायीके उक्त मङ्गलपद्योंके साथ, मूल प्रतिपाद्य विषयकी दृष्टिसे, कितनी अधिक समानता है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। दोनों ग्रन्थोंके मङ्गलाचरणोंके स्तुति-पात्र ही एक नहीं बल्कि उनका क्रम भी एक है | साथ ही 'महावीरं', 'शेषानपि तीर्थकरान्'-'शेषानपि तीर्थनायकान्', 'अनन्तसिद्धान्'--'सिद्धमणान्', 'जीयात्'-'जयन्ति', 'इति','कृतमङ्गलसक्रिय':-'सन्मङ्गलसक्रियां दधन्', 'चिकीर्षितं',-'चिकीर्षति' ये पद भी उक्त समानताको और ज्यादा समुद्योतित कर रहे हैं। इसी तरह पंचाध्यायीका 'आत्मवशात्' रचा जाना और लाटी संहिताका 'उपज्ञा' (स्वोपना) होना भी दोनों एक ही आशयको सूचित करते हैं । अस्तु; मङ्गल पद्योंकी इस स्थितिसे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि दोनों ग्रन्थ एक ही विद्वान्के रचे हुए हैं।
(५) इसके सिवाय, पंचाध्यायीमें ग्रन्थकारने अपनेको 'कवि' नामसे उल्लेखित किया है--जगह जगह 'कवि' लिखा है । यथाः
अत्रान्तरङ्गहेतुर्यद्यपि भावः कविशुद्धतरः । हेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः ।।५।। तत्राधिजीवमाख्यानं विदधाति यथाऽधुना । कविः पूर्वापरायत्तपर्यालोचविचक्षणः ।। (उ०) १६०| उक्तो धर्मस्वरूपोपि प्रसंगात्संगतोंशतः। कविर्लब्धावकाशस्तं विस्ताराद्वा करिष्यति ॥७७५।।
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