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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड' ननु व्रतप्रतिमायामेतत्सामायिकं व्रतं । तदेवात्र तृतीयायां प्रतिमायां तु किं पुनः ॥४॥ सत्यं किन्तु विशेषोऽस्ति प्रसिद्धः परमागमे। सातिचारं तु तत्र स्यादत्रातीचारवर्जितम् ॥शा किञ्च तत्र त्रिकालस्य नियमो नास्ति देहिनां । अत्र त्रिकालनियमो मुनेर्मूलगुणादिवत् ॥६॥ तत्र हेतुबशात्कापि कुर्यात्कुर्यान्न वा कचित् । सातिचार-व्रतत्वाद्वा लथापि न व्रतक्षतिः ॥७॥ अनावश्यं त्रिकालेऽपि कार्य सामायिकं च यत् । अन्यथा व्रतहानिः स्यादतीचारस्य का कथा ।।८।। अन्यत्राऽप्येवमित्यादि यावदेकादशस्थितिः। व्रतान्येव विशिष्यन्ते नार्थादर्थान्तरं क्वचित् ।।६।। शोभतेऽतीव संस्कारात्साक्षादाकरजो मणिः । संस्कृतानि ब्रतान्येव निर्जरा हेतवस्तथा ॥१०॥
-सप्तम सर्ग। सारी लाटीसंहिता इसी प्रकारके ऊहापोहात्मक पद्योंसे भरी हुई है। यहाँ विस्तार-भयसे सिर्फ थोड़े ही पद्य उद्धृत किये गये हैं । इन पद्योंपरसे विज्ञ पाठक लाटीसंहिताकी कथनशैली और उसके साहित्य आदिका अच्छा अनुभव प्राप्त करनेके लिये बहुत कुछ समर्थ हो सकते हैं, और पंचाध्यायीके साथ तुलना करनेपर उन्हें यह स्पष्ट मालूम होसकता है कि दोनों ग्रन्थ एक ही लेखनीसे निकले हुए हैं और उनका टाइप भी एक है।
(४) पंचाध्यायीके शुरूमें मंगलाचरण और ग्रन्थ करनेकी प्रतिज्ञारूपसे जो चार पद्य दिये हैं वे इस प्रकार हैं:
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