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प्रस्तावना
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इन पद्योंपरसे विश पाठक सहजमें ही पंचाध्यायीके प्रचलित अथवा मुद्रित पाठकी अशुद्धियोंका कुछ अनुभव कर सकते हैं और साथ ही उक्त हिन्दी टीकाको देखकर यह भी मालूम कर सकते हैं कि इन अशुद्ध पाठोंकी वजहसे उसमें क्या कुछ गड़बड़ी हुई है।
किसी किसी पद्य का पाठ-भेद स्वयं ग्रन्थकर्ताका किया हुआ भी जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है:
उक्तं दिङ्मात्रमत्रापि प्रसंगाद्-गुरुलक्षणम् । शेषं विशेषतो वक्ष्ये (ज्ञेयं) तत्स्वरूपं जिनागमात् ॥७१४||
यहां 'वक्ष्ये' की जगह 'ज्ञेयं' पदका प्रयोग लाटीसंहिताके अनुकूल जान पड़ता है; क्योंकि लाटीसँहितामें इसके बाद गुरुका कोई विशेष स्वरूप नहीं बतलाया गया, जिसके कथनकी 'वक्ष्ये' पदके द्वारा पंचाध्यायीमें प्रतिज्ञा की गई है, और न इस पदमें किसी हृदयस्थ या करस्थ दूसरे ग्रन्थका नाम ही लिया है, जिसके साथ उस स्वरूप-कथनकी प्रतिज्ञा-शृङ्खलाको जोड़ा जा सकता। ऐसी हालतमें यहाँ प्रत्येक ग्रन्थका अपना पाठ उसके अनुकूल है, और इसलिये दोनोंको एक ग्रन्थकर्ताकी ही कृति समझना चाहिए।
(ग) लाटीसंहिताकी स्वतंत्र कथन-शैलीका स्पष्ट आभास करानेके लिये यहाँ नमूनेके तौरपर उसके कुछ ऐसे पद्य भी उद्धृत किये जाते हैं जो पंचाध्यायीमें नहीं हैं:
ननु या प्रतिमा प्रोक्ता दर्शनाख्या तदादिमा। जैनानां साऽस्ति सर्वेषामादवतिनामपि ॥१४४।। मैवं सति तथा तुर्यगुणस्थानस्य शून्यता। नूनं हकप्रतिमा यस्माद् गुणे पञ्चमके मता ॥१४॥
-तृतीय सर्ग
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