SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १७ इन पद्योंपरसे विश पाठक सहजमें ही पंचाध्यायीके प्रचलित अथवा मुद्रित पाठकी अशुद्धियोंका कुछ अनुभव कर सकते हैं और साथ ही उक्त हिन्दी टीकाको देखकर यह भी मालूम कर सकते हैं कि इन अशुद्ध पाठोंकी वजहसे उसमें क्या कुछ गड़बड़ी हुई है। किसी किसी पद्य का पाठ-भेद स्वयं ग्रन्थकर्ताका किया हुआ भी जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है: उक्तं दिङ्मात्रमत्रापि प्रसंगाद्-गुरुलक्षणम् । शेषं विशेषतो वक्ष्ये (ज्ञेयं) तत्स्वरूपं जिनागमात् ॥७१४|| यहां 'वक्ष्ये' की जगह 'ज्ञेयं' पदका प्रयोग लाटीसंहिताके अनुकूल जान पड़ता है; क्योंकि लाटीसँहितामें इसके बाद गुरुका कोई विशेष स्वरूप नहीं बतलाया गया, जिसके कथनकी 'वक्ष्ये' पदके द्वारा पंचाध्यायीमें प्रतिज्ञा की गई है, और न इस पदमें किसी हृदयस्थ या करस्थ दूसरे ग्रन्थका नाम ही लिया है, जिसके साथ उस स्वरूप-कथनकी प्रतिज्ञा-शृङ्खलाको जोड़ा जा सकता। ऐसी हालतमें यहाँ प्रत्येक ग्रन्थका अपना पाठ उसके अनुकूल है, और इसलिये दोनोंको एक ग्रन्थकर्ताकी ही कृति समझना चाहिए। (ग) लाटीसंहिताकी स्वतंत्र कथन-शैलीका स्पष्ट आभास करानेके लिये यहाँ नमूनेके तौरपर उसके कुछ ऐसे पद्य भी उद्धृत किये जाते हैं जो पंचाध्यायीमें नहीं हैं: ननु या प्रतिमा प्रोक्ता दर्शनाख्या तदादिमा। जैनानां साऽस्ति सर्वेषामादवतिनामपि ॥१४४।। मैवं सति तथा तुर्यगुणस्थानस्य शून्यता। नूनं हकप्रतिमा यस्माद् गुणे पञ्चमके मता ॥१४॥ -तृतीय सर्ग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy