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वीरसेवा मन्दिर - ग्रन्थमाला
भावार्थ-व्रत समिति आदिके द्वारा आते हुये द्रव्य-कर्मोंका रुक जाना द्रव्यसंवर है । द्रव्यनिर्जराका लक्षण - शुद्धादुपयोगादिह निश्चयतपसश्च संयमादेव । गलति पुरा बद्धं किल कर्मैषा द्रव्यनिर्जरा गदिता ॥ १३ ॥ अर्थ- शुद्धोपयोगसे और निश्चयतपों - अन्तरङ्गतपोंसे अथवा संयमादिकोंस जो पूर्वबद्ध - पहिले बंधे हुये कर्म झड़ते हैं वह व्यनिर्जरा कही गई है।
भावार्थ-समय पाकर या तपस्या आदिके द्वारा जो कर्मपुद्गल नाशको प्राप्त होते हैं वह द्रव्यनिर्जरा है । यह द्रव्यनिर्जरा भावनिर्जराकी तरह सविपाक और अविपाक दोनों तरहकी होती है। कर्म की स्थिति पूरी होनेपर फल देकर जो कर्म-पुद्गल झड़ते हैं। वह सविपाक द्रव्यनिर्जरा है और स्थिति पूरी किये बिना ही तपस्या आदि प्रयत्नोंके द्वारा जो कर्म- पुद्गल प्रदेशोदयमें आकर नाश होते हैं वह विपाक द्रव्यनिर्जरा है ।
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मोक्षके दो भेद
मोक्षो लक्षित एव हि तथापि संलच्यते यथाशक्ति । भाव- द्रव्यविभेदाद्विविधः स स्यात्समाख्यातः ॥ १४ ॥
अर्थ- 'मोक्षत्व' का निरूपण यद्यपि पहिले कर आये हैं तथापि यहाँ पुनः उसका लक्षण क्रम-प्राप्त होनेके कारण किया जाता है । वह मोक्ष भाव और द्रव्यके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है ।
* 'सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अपणो हु परिणामो ।
यो स भाव- मोक्खो व्व-विमोक्खो य कम्म पुधभावो ||' - द्रव्यसं० ३७
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