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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
दृष्टान्तद्वारा उक्त कथनका स्पष्टीकरण-- स्नेहाभ्यङ्गाभावे गलति रजः पूर्वबद्धमिह नूनम् । नाऽप्यागच्छति नव्यं यथा तथा शुभावतस्तो द्वौ ॥११॥
अर्थ-स्नेह-घी, तेल आदि चिकने पदार्थोके लेपका अभाव होनेपर जिस प्रकार पहलेकी चिपकी हुई धूलि निश्चयसे झड़ जाती है-दूर हो जाती है और नवीन धूलि चिपकती नहीं है, उसी तरह शुद्ध-भावसे संचित कर्मोका नाश और नवीन कर्मोका निरोध होता है। इस प्रकार शुद्ध-भावसे संवर और निर्जरा दोनों होते हैं।
भावार्थ-जिस प्रकार घी, तैल आदि चिकने पदार्थोका लेप करना छोड़ देनेपर पहलेकी लगी हुई धूलि दूर हो जाती है और नई धूलि लगती नहीं है, उसी तरह आत्माके व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुपेक्षा, परीषहजय और तप इन शुद्ध भावोंसे संवर-नये कर्मोका न आना और निर्जरा-संचित कर्मोका छूट जाना ये दोनों कार्य होते हैं, इसमें बाधादि कोई दोष नहीं है।
द्रव्यसंवरका स्वरूपचिदचिह्न दज्ञानानिर्विकल्पात्समाधितश्चापि । कर्मागमननिरोधस्तत्काले द्रव्यसंवरो गीतः ॥ १२ ॥
अर्थ-आत्मा और शरीरके भेदज्ञान और निर्विकल्पक समाधिसे जो उस काल में आगामी कर्मोका निरोध-रुकना होता है वह द्रव्यसंवर है।।
। 'कर्मणामास्रवाभावो रागादीनामभावतः।
तारतम्यतया सोऽपि प्रोच्यते द्रव्यसंवरः॥-जम्बूस्वा० १३-१२४
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