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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
हट जानेपर नियमसे उसका अनुभव होता है और इस शुद्धस्वरूपकी अनुभूतिका ही नाम भावनिर्जरा है।।
एक शुद्धभावके भावसंवर और भावनिर्जरा दोनोंरूप होने में शंका-समाधानएकः शुद्धो हि भावो ननु कथमिति जीवस्य शुद्वात्मबोधाद्भावाख्यः संवरः स्यात्स इति खलु तथा निजैरा भावसंज्ञा । भावस्यैकत्वतस्ते मतिरिति यदि तन्नैव शक्तिद्वयात्स्या-* . त्पूर्वोपात्तं हि कर्म स्वयमिह विगलेन्नवा बध्येत नव्यम् ॥१०॥ __शंका-शुद्धभाव एक है, वह जीवके शुद्धात्माके ज्ञानसे होनेवाले भावसंवर और भावनिर्जरा इन दो रूप कैसे है ? अर्थात् एक शुद्ध भावके भाव-संवर और भाव-निर्जरा ये दो भेद नहीं हो सकते हैं ?
समाधान-ऐसा मानना ठीक नहीं हैं; क्योंकि उस एक शुद्धभावमें दो शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं। इन दो शक्तियोंके द्वारा शुद्धभावसे भावसंवर और भावनिर्जरा ये दो कार्य निष्पन्न होते हैं । एक शक्तिके द्वारा पहले बंधे हुए कर्म झड़ते हैं और दूसरी शक्तिसे नवीन कर्मोका आस्रव रुकता है। इस तरह दो शक्तियोंकी अपेक्षा एक शुद्धभावसे दो प्रकारके कार्यो (भावसंवर और भाव-निर्जरा)के होने में कोई बाधा नहीं है।
भावार्थ-दृष्टान्त द्वारा अगले पद्यमें ग्रन्थकार स्वयं ही इस बातको स्पष्ट करते हैं कि एक शुद्वभावके भावसंवर और भावनिर्जरा ये दो कार्य बन सकते हैं।
* 'शक्तियोः स्यात्' मुद्रितप्रतौ पाठः । + 'विगलेतेव' मुद्रितप्रतौ पाठः ।
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