________________
अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड ।
६६
हो जानेपर संसाररूप कार्यका भी अभाव अवश्य हो जाता है-अर्थात् आत्माको अपने शुद्धस्वरूपकी उपलब्धि हो जाती है और इसी उपलब्धिका नाम भावनिर्जरा है।
भावार्थ-नये राग-द्वेष आदि भावकर्मोका रुक जाना भावसंवर है। जैसा कि आ० उमास्वामिका वचन है-'आस्रवनिरोधः संबरः' ( तत्त्वार्थसूत्र :-१)-अर्थात् आस्रवके बन्द हो जानेको संवर कहते हैं । इसके होनेपर फिर नवीन कर्मोका बन्ध नहीं होता और इस तरह आत्मा लघुकर्मा हो जाता है। भावसंवरको प्राप्त करनेका उपाय यह है कि शरीर और शरीरसे सम्बन्धित स्त्री, पुत्र आदि पर-पदार्थोमें आत्मत्वकी बुद्धिका त्याग करे-बहिरात्मापनेकी मिथ्याबुद्धिको छोड़े और आत्मा तथा आत्मीय भावों (उत्तमक्षमादिकों) में ही आत्मपनेकी बुद्धि करे–अन्तरात्मापनेकी सम्यकदृष्टिको अपनावे। इस प्रकार फिर नवीन कर्मोका आस्रव नहीं होगा। यही वजह है कि सम्यग्दृष्टिकी क्रियायें संवर और निर्जराकी ही कारण होती हैं और मिथ्यादृष्टिकी क्रियायें बन्ध और आस्रवकी।
संचित कर्मोक अभाव हो जानेपर शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (अनुभव) होना भावनिर्जरा है। आत्माके इस शुद्ध स्वरूपके आच्छादक नवीन और संचित दोनों ही प्रकार के कर्म हैं । संवरके द्वारा तो नवीन कर्मोका निरोध होता है और निर्जराके द्वारा संचित कर्म नष्ट होते हैं। इस प्रकार शुद्धस्वरूपके आवरणोंके
+ 'ज्ञानिनो ज्ञाननिवृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि । . सर्वेऽप्यज्ञाननिवृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ॥'
-नाटकसमयसा० कर्त्तकमधि० श्लोक २२
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org