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वीर सेवा मन्दिर - ग्रन्थमाला
भेदको कर्मविषयक ग्रन्थोंसे जानना चाहिये । कुछ भेदों को संक्षेपपूर्वपद्यकी व्याख्या में भी बतला आये हैं ।
भावसंवर और भावनिर्जराका स्वरूपत्यागो भावास्रवाणां जिनवरगदितः संवरो भावसंज्ञो भेदज्ञानाच्च स स्यात्स्वसमयवपुषस्तारतम्यः कथंचित् । सा शुद्धात्मोपलब्धिः स्वसमयवपुषो निर्जरा भावसंज्ञा नाम्ना भेदोऽनयोः स्यात्करणविगमतः । कार्यनाशप्रसिद्धेः ॥ ६ ॥
अर्थ - भावास्रके रुक जानेको जिनेन्द्र देवने भावसंवर कहा है* | यह भावसंवर आत्मा तथा शरीरके भेदज्ञान - 'आत्मा अलग है शरीर अलग है'-- इस प्रकारके ज्ञानसे तारतम्य - कमसीबढ़तीरूपमें होता है। अपने आत्मा और शरीरका भेदज्ञान होने से जो शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होती है वह भावनिर्जरा है । इन दोनों ( भावसंवर और भावनिर्जरा ) में यही अन्तर है । 'कार के नाशसे कार्यका नाश होता है' यह प्रसिद्ध ही है अतः संचित और आगमी दोनों ही संसार के कारणभूत कर्मो के प्रभाव + 'शुद्धात्मोपलब्धे' मुद्रितप्रतौ पाठः । X 'वपुषा' मुद्रितप्रतौ पाठः ।
+ 'विगतः ' मुद्रितप्रतौ पाठः ।
* येनांशेन कपायाणां निग्रहः स्यात्सुदृष्टिनाम् । तेनांशेन प्रयुज्येत संवरी भावसंज्ञकः ॥
-- जम्बूस्वामिचरित १३-१२३
+ श्रात्मनः शुद्धभावेन गलत्येतत्पुराकृतम् | क्रसं कर्म सा भवेदभावनिर्जरा ||
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- जम्बूस्वामिचरित १३-१२७
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