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अध्यात्म-कमल-मातंग
विरोध या असङ्गति नहीं है। दोनों ही परम्पराये एवं मान्यतायें प्रमाणभूत हैं और मान्य हैं । एक तीसरी प्रकारकी भी मान्यता है, जो कषाय और योग दोनों को ही मानती है । सूक्षदृष्टिसे देखनेपर मिथ्यात्व और अविरति ये दोनों कषायके स्वरूपसे अलग नहीं पड़ते, अतः कषाय और योग इन दो की मान्यता भी कोई विरुद्ध या असङ्गत नहीं है । इस तरहसे संख्या और उसके कारण नामोंमें भेद रहनेपर भी तात्विकष्ठिसे इन परम्पराओंमें कुछ भी भेद नहीं है। विपरीत अभिनिवेश-अर्थात अतत्त्वमें तत्त्वबुद्धि, अदेवमें देवबुद्धि, अगुरुमें गुरुबुद्धि करना मिथ्यात्व है। हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापोंका न तो एक देश त्याग करना और न सर्व देश त्याग करना, सो अविरति है। रागद्वेषरूप परिणामोंका होना, गुस्सा करना, अभिमान करना, मायाचारी दग़ाबाजी आदि करना और लोभ करना यह सब कषाय है । मनमें अच्छा या बुरा विचार होनेपर, वचनसे अच्छे या बुरे शब्द कहनेपर और शरीरसे अच्छी या बुरी चेष्टा करनेपर आत्मप्रदेशोंमें जो परिस्पन्द होता है वह योग है। इस तरह कुल वैभाविकभाव इन चार भेदोंमें विभाजित हैं। इन्हींको बन्धहेतु-आस्रव कहते हैं।
वैभाविकभावोंके भावास्रव और भावबन्धरूप होने में शंकासमाधानचत्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावास्रवो भावबंधश्चैकत्वाद्वस्तुतस्ते बत मतिरिति चेत्तन्न शक्तिद्वयात् स्यात्। * 'जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागा कसायदो होति ।'
___-द्रव्यसंग्रह ३३ । 'शक्तिद्वयोः स्यात्' मुद्रितप्रतौ पाठः ।
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